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________________ अनेकान्त 60/1-2 श्रुतज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण | अवधिज्ञानावरण, 87 मन:पर्ययज्ञानावरण और जिस ज्ञानावरण कर्म के अभाव से आत्मा के ज्ञानगुण का मतिज्ञानरूप से विकास हो अथवा जो आत्मा के ज्ञानगुण का मतिज्ञान रूप से विकास न होने दे उसे मतिज्ञानावरण कर्म कहते हैं । इसी प्रकार श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्यज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण का स्वरूप समझना चाहिये । इन पांचों ज्ञानावरण कर्मो के अभाव से आत्मा के ज्ञानगुण का क्रम से जो मतिज्ञानादि रूप विकास होता है इस विकास को जैनधर्म में "ज्ञानलब्धि' " नाम दिया गया है । इस ज्ञानलब्धि के द्वारा ही मनुष्य, पशु आदि सभी प्राणियों को पदार्थों का ज्ञान हुआ करता है । और प्राणियों को होने वाले इस प्रकर के पदार्थ ज्ञान को जैनधर्म में 'ज्ञानोपयोग" संज्ञा दी गयी है । 1 5 शरीर के अंगभूत बाह्य स्पर्शन, रसना, नासिका, नेत्र और कर्ण इन पांच इन्द्रियों और मन की सहायता से प्राणियों को जो पदार्थो का ज्ञान हुआ करता है वह मतिज्ञानोपयोग कहलाता है और इसमें कारणभूत ज्ञानगुण के विकास को ' मतिज्ञानलब्धि' समझना चाहिये अर्थात् ज्ञाता में मतिज्ञान वरण कर्म के अभाव से पैदा हुआ आत्मा के ज्ञानगुण का मतिज्ञान - लब्धिरूप विकास ही पदार्थ का सान्निध्य पाकर पांच इन्द्रियों तथा मन की सहायता से होने वाले पदार्थ ज्ञानरूप मतिज्ञानोपयोग में परिणत हो जाया करता है । इसके इन्द्रियादि निमित्तों की अपेक्षा दश भेद माने गये हैं- स्पर्शनेन्द्रिय-प्रत्यक्ष, रसनेन्द्रिय-प्रत्यक्ष, नासिकेन्द्रिय-प्रत्यक्ष, नेत्रेन्द्रिय- प्रत्यक्ष, कर्णेन्द्रिय- प्रत्यक्ष, मानस-प्रत्यक्ष, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान । शब्द-श्रवण * पूर्वक श्रोता को मन की सहायता से जो सुने हुए शब्दों का अर्थज्ञान होता है वह श्रुतज्ञानोपयोग कहलाता है और इसमें
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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