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________________ अनेकान्त 60/1-2 41 इससे पहले छोटा-मोटा और हल्का-भारी न जाने कितना साहित्य बना होगा, तब वेदों का नम्बर आया होगा। सो, वेदों की रचना के समय तक वह मूलभाषा पूरी तरह विकसित हो चुकी होगी और देश-भेद या प्रदेश-भेद से उसके रूप-भेद भी हो गये होंगे। उन प्रादेशिक भेदों में से जो कुछ साहित्यिक रूप प्राप्त कर चुका होगा, उसी में वेदों की रचना हुई होगी, परन्तु अन्य प्रादेशिक रूपों के भी शब्द प्रयोग ग्रहीत हुए होंगे।25 ___ संस्कृत एवं प्राकृत का यह चिंतन भाषा-विज्ञान के लिए आज भी उतना ही विचारणीय है जितना कि अपनी प्रारम्भिक अवस्था में था, परन्तु इस तर्क-वितर्क से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि प्राकृत भी उतनी ही प्राचीन भाषा है, जितनी की छान्दस् या वैदिक है। भाषा विज्ञान एवं प्राकृत भाषा के विद्वान डा. नेमीचन्द्र शास्त्री ने प्राकृत भाषा के विकास क्रम को समझाते हुए इसे तीन स्तरों में विभक्त किया है। प्रथम भाग 600 ई.पू. से 100 ई. तक का माना है, जिसमें प्राकृत के अनेक रूपों का विकास हुआ है। इन भाषाओं में 1. पाली, 2. पैशाची एवं चूलिका पैशाची, 3. अर्धमागधी (जैन-आगम की भाषा) अशोक के शिलालेख एवं अश्वघोष के नाटकों की भाषा को प्राकृत माना गया है। द्वितीय युग का समय काल 100 से 600 ईसवीं माना गया है। इससे भास एवं कालिदास के नाटकों की प्राकृत तथा 2. काव्य सेतुबन्ध आदि की प्राकृतें तथा 3. प्राकृत व्याकरणों द्वारा अनुशासित प्राकृत तथा परवर्ती जैन-ग्रन्थों की प्राकृतें इस युग की प्रमुख विकसित प्राकृतें मानी गई हैं। तृतीय युग में अपभ्रंश भाषाओं का सृजन हुआ- पाली एवं अपभ्रंश को प्राकृत से पृथक् भाषा के रूप में भी माना जाता है। इन अपभ्रंशों को भी प्राकृत भाषा परिवार के रूप में चार भागों में विभक्त किया गया है- महाराष्ट्री, पैशाची, मागधी और शौरसेनी। वररुचि ने अपने प्राकृत प्रकाश में इन्हीं चार प्राकृत-प्रकारों का अनुशासन किया है।26
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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