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________________ अनेकान्त 60/1-2 आज परिग्रह की मूर्च्छा में से उपजा असंतोष मनुष्य को अनेक वर्जित दिशाओं में ले जा रहा है। कामनाओं से तृषित पत्नी अपने पति से संतुष्ट नहीं है। धन के मद से नित नई चाह वाला पति अपनी पत्नी में नवीनता नहीं देख पाता, उसकी दृष्टि कहीं अन्यत्र है । जहाँ दैहिक अनाचार के अवसर नहीं हैं, वहाँ भी मानसिक अनाचार निरंतर चल रहा है । तनावों में कसा हुआ जीवन नरक बन रहा है । जिसे जो मिला है, वह उसे संतुष्ट नहीं कर पा रहा। उसे और अधिक चाहिये या फिर स्वाद बदलने के लिये दूसरा चाहिये, जस्ट फार ए चेंज । 26 लोभ और तृष्णा इसी तरह राजा को रंक और भिखारी बना देती है । जो आशा और तृष्णा के गुलाम हो गये, वे सारी दुनिया के गुलाम हो जाते हैं, परन्तु आशा को जिन्होंने वश में कर लिया, सारा संसार उनके वश में हो जाता है। वे लोक-विजयी होकर मानवता के मार्ग-दर्शक बन जाते हैं । यही बात एक नीतिकार ने कही - आशाया ये दासाः, ते दासा सर्वलोकस्य । आशा येषां दासी, तेषां दासायते लोकः ।। इस आशा दासी का गणित विचित्र है। जब तक इसको मनोवांछित मिलता नहीं तब तक इसका शिकार लोभ की दाह में दग्ध होता रहता है, और संयोग से कभी चाह पूरी हो गई तो उसी अनुपात में हमारी आशा का कद बढ़ता जाता है तथा जो मिला है उससे चिपटे रहने की तृष्णा हमें अपने पाश में जकड़ लेती है । हर हाल में आशा के चक्कर में पड़ कर हम सदा अतृप्त और दुःखी ही बने रहते हैं । महाकवि भूधरदासजी ने ठीक ही कहा था ज्यों-ज्यों भोग सँजोग मनोहर मन - वाँछित जन पावै, तृष्णा नागिन त्यों-त्यों डंकै, लहर जहर की आवै । जार्ज बर्नार्ड शॉ ने एक जगह लिखा है- 'हमारे जीवन में दो दुखद घटनाएँ घटती हैं। पहली यह कि हमें अपनी मनचाही वस्तुएं मिलती
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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