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________________ यह सप्तरंगी अभिषेक कहां से आया ? पानचन्द जैन पूर्व जस्टिस, जयपुर जैनधर्म में निजी पुरुषार्थ को व व्यक्ति के आचरण को सर्वोपरि माना गया है। कारण कार्य अनुभूत कर्म सिद्धान्त जैनधर्म की विधा है। जैनधर्म के सिद्धान्तों के अनुसार स्वयं तीर्थकर भी किसी के अच्छे बुरे कर्मों को हीनाधिक नहीं कर सकते, किन्तु स्वयं व्यक्ति अपने सम्यक् तप आचरण, त्याग से कर सकता है। यही कारण है कि वीतराग प्रतिमाओं से किसी भी प्रकार की याचना वर्जित की गई है, किन्तु आज अधिकांश आचार्य, मुनिगण, कई प्रकार के विधानों से आशीष देते हैं और किसी को तो श्राप तक दे देते हैं। जैनधर्म की शाश्वतता व अमरता का आधार है, उसके अहिंसा, अनेकान्त व अपरिग्रह के सिद्धान्त। जैनी कर्मवादी है। यदि कर्म सिद्धान्त सही है तो मंत्र तंत्र विधानादि प्रदर्शनों, जुलूसों के लिए प्रभावना का तर्क दिया जाना मिथ्या है, क्योंकि इनसे कोई प्रभावना नही होती। किसी भी धर्म की वास्तविक प्रभावना उसके अनुयायियों के चरित्र और आचरण से होती है। जैनियों के आचरण से ही उनकी विशिष्ट प्रतिष्ठा रही है। भूतकाल में जाकर देखें तो विलासी नवाब व राजा प्रतिष्ठावान जैनियों को उच्च पद पर बैठाते थे। मंत्री पद और कोषाध्यक्ष का पद अधिकांशतः जैनियों को ही दिया जाता था, किन्तु वर्तमान में यह प्रतिष्ठा लगभग समाप्त सी हो गई है। क्योंकि हमारा स्वयं का व साधु का आचरण शुद्ध नहीं रहा। हमारी कथनी करनी में भेद आ गया है। वर्तमान में आचार्य, साधु साध्वियों की भरमार है। साथ ही उनके अपने विधानों की भी भरमार है। आचार्य, मुनि व साधु साध्वियां भिन्न-भिन्न विधाओं का प्रतिपादन करते रहें हैं, किन्तु व्यक्तिगत चरित्र निर्माण का जैनधर्म की अस्मिता का जैनी की पहिचान का कोई भी कार्य करता कोई दिखाई नहीं देता। सभी विधानों में अहिंसा व अपरिग्रह के सिद्धान्तों का घोर हनन होता है। यहां तक कि वीतराग तीर्थंकरों की पूजा अर्चना में भी परिग्रह की पराकाष्ठा दिखाई देती है। अपरिमित भव्यता में परिग्रह के मूल
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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