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अनेकान्त 60/4
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व्यतिरेक अलंकार भी इस स्तोत्र का प्रिय अलंकार है। सामान्यतया उपमान, उपमेय से अधिक गुण वाला होता है, किन्तु जहाँः उपमेय की अपेक्षा उपमान इस्व हों, वहाँ व्यतिरेक अलंकार होता है। इसकी छटा तो यहाँ अनेक पद्यों में दिखती है जहाँ तीर्थंकर ऋषभदेव की गुणीय उदात्तता एवं सर्वोच्चता का प्रतिपादन करने के लिए कवि ने इसका उपयोग किया है। "नास्तं कदाचित् नामक 17 वें पद्य के अन्तिम चरण सूर्यातिशायी महिमासि मुनीन्द्र लोके"- इस चरण में भक्त कवि समकक्ष उपमानों की कभी हीन सिद्ध करके तो कभी समतुल्यता का ही निषेध करके उपमेय की सर्वोच्चता सिद्ध करते हैं। इसी तरह 18वें एवं 19वें पद्य में मुख सौन्दर्य की अधिकता मन्ये वरं नामक 21वें पद्य में तीर्थकर भगवान की श्रेष्ठता, स्त्रीणां शतानि नामक 22वें पद्य में तीर्थकर ऋषभनाथ की माता का लोकोत्तर मातृत्त्व आदि व्यतिरेक अलंकार के सर्वोत्तम उदाहरण हैं।
इस प्रकार भक्तामर स्तोत्र का विश्लेषणात्मक अध्ययन करने पर हमें इसके प्रत्येक पद्य में रस और अलंकारों की छटा सर्वत्र विखरी हुई मिलती है। किन्हीं-किन्हीं पद्यों में एक से अधिक अलंकारों का प्रयोग भी इस स्तोत्र का वैशिष्ट्य है।
प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, जैनदर्शन विभाग सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी