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मद्यमांसाशनं रात्रौ भोजनं कन्द भक्षणम् । ये कुर्वन्ति वृथा तेषां तीर्थयात्रा जपस्तपः ।।
अनेकान्त 60/4
पद्मपुराण
गरुड़ पुराण में रात्रि के अन्न को मांस तथा जल को खून की तरह कहा गया है
अस्तंगते दिवानाथे आपो रुधिरमुच्यते । अन्नं मांससमं प्रोक्तं मार्कण्डेयमहर्षिणा । ।
अर्थात् दिवानाथ यानी सूर्य के अस्त हो जाने पर मार्कण्डेय महर्षि ने जल को खून तथा अन्न को मांस की तरह कहा है । अतः रात्रि का भोजन त्याग करना चाहिए ।
सनातन धर्म में भी रात्रि में शुभ कर्म करने का निषेध है । कहा
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समस्त वेदज्ञाता जानते हैं कि सूर्य प्रकाशमय हैं । उसकी किरणों से समस्त जगत् के पवित्र होने पर ही समस्त शुभ कर्म करना चाहिए । रात्रि में न आहुति होती है, न स्नान, न श्राद्ध, न देवार्चन और न दान । ये सब अविहित हैं और भोजन विशेष रूप से वर्जित है । दिन के आठवें भाग में सूर्य का तेज मंद हो जाता है । उसी को रात्रि जानना । रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए। देव पूर्वाह्न में, ऋषि मध्याह्न में और पितृगण अपराह्न में भोजन करते हैं । दैत्य - दानव सांयाहून में भोजन करते हैं । यक्ष-राक्षस सदा संध्या में भोजन करते हैं । इन सब बेलाओं को लांघकर रात्रि में भोजन करना अनुचित है ।
वर्तमान में विवाह आदि अवसरों पर यहां तक कि धार्मिक कार्यक्रमों में भी रात्रि - भोजन बढ़ रहा है जो जैन जीवन शैली के सर्वथा विरुद्ध है तथा स्वास्थ्य की दृष्टि से भी हानिकारक है । आज हम अपनी पहचान को खोते जा रहे हैं अतः अपनी अस्मिता को बनाये रखने के लिए हमें रात्रि भोजन की प्रवृत्ति पर संयमन करना आवश्यक है I
रीडर - जैन-बौद्ध दर्शन
संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी