________________
अनेकान्त 60/4
रूपलावण्यभूषाद्या नरा नार्यो विचक्षणाः ।। 9 ।। यस्यां वसन्ति पुण्येन सुभगाश्च शुभाशयाः । धर्मार्जनपरा नित्यं दानपूजादितत्पराः ।। 10।।
29
अर्थ जहाँ ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न, व्रतशील आदि से सहित, जिनेन्द्र भगवान के भक्त, सदाचरण वाले, गुरु सेवा में तत्पर, नीतिमार्ग में लीन, जिनधर्म के पालक, धन-धान्यादि से परिपूर्ण, रूप लावण्य तथा भूषणों से युक्त, पुण्यशाली सुभग, शुभभाव वाले, नर-नारी निवास करते हैं, वह स्थान प्रशस्त कहा गया है । अप्रशस्त स्थान कैसा होता है उसके सम्बन्ध में लिखते हैं :
त्यज्यते धार्मिकैर्देशो निःसंयमनमस्कृतिः । निर्विदग्धजनो घोर म्लेच्छलोकसमाकुलः ।। 14।।
अर्थ जहाँ संयम तथा विनय नहीं है, जहाँ अकुशल मूर्ख मनुष्य रहते हैं, और जो भयंकर म्लेच्छ लोगों से भरा हुआ है, ऐसा देश धर्मात्माओं के द्वारा छोड़ देना चाहिए ।
यस्मिन् देशे न तीर्थानि न चैत्यानि न धार्मिकाः । तस्मिन् देशे न गन्तव्यं स्वधर्मप्रतिपालकैः ।। 2 ।।
अर्थ जिस देश में न तीर्थ हों, न प्रतिमाएं हों और न धर्म के पालने वाले लोग हों, अपने धर्म की रक्षा करने वालों को उस देश में नहीं जाना चाहिए ।
उपर्युक्त श्री मूलाचार में कथित एकलविहार एवं अनियत विहार के परिप्रेक्ष्य में, वर्तमान अधिकांश साधुओं के आचरणों में आगम निष्ठता दृष्टिगोचर नहीं हो रही है। जो साधु, गुरु आज्ञा से संघ से अलग दो या तीन होकर विहार कर रहे हैं। जिनकी चर्या आगम के अनुसार है जो दृढ़ चरित्री, आगम ज्ञानी, परीषहजयी आदि गुणों से विभूषित हैं, उनके विहार को आगम सम्मत माना जाना चाहिए । परन्तु जो अकेले विहार कर रहे हैं, एक आर्यिका के साथ विहार कर रहे हैं, स्वच्छन्द