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अनेकान्त 60/1-2
देता है इसलिए वह एक तरह से मरा हुआ ही कहलाता है। उन दोनों जन्मों में से जो पाप से दूषित नहीं है ऐसा संस्कार से उत्पन्न हुआ वह पुरुष सर्वश्रेष्ठ सद्गृहित्व अवस्था को पाकर सद्गृहस्थ होता है । उत्तम क्रियाओं के करने योग्य ब्राह्मणों ने उनके जातिवाद का अहंकार दूर करने के लिए आगे वर्णन किया है।
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जो ब्रह्मा की सन्तान हैं, उन्हें ब्राह्मण कहते हैं और स्वयम्भू भगवान परमेष्ठी तथा जिनेन्द्र देव ब्रह्मा कहलाते है । इसका भाव यह है कि जो जिनेन्द्र भगवान का उपदेश सुनकर उनकी शिष्य परम्परा में प्रविष्ट है वे ब्राह्मण कहलाते हैं । श्री जिनेन्द्रदेव ही आदि परम ब्रह्मा हैं, क्योंकि वे ही गुणों के बढ़ाने वाले हैं और उत्कृष्ट ब्रह्म अर्थात् ज्ञान भी उन्हीं के अधीन है, ऐसा मुनीश्वर कहते हैं।
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जो मृगचर्म धारण करता है, जटा, दाढ़ी आदि चिह्नों से युक्त है तथा काम के वश अंधा होकर जो ब्रह्मतेज अर्थात् ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट हुआ वह कभी ब्रह्मा नहीं हो सकता। इसलिए जिन्होंने दिव्य मूर्ति के धारक श्री जिनेन्द्रदेव के निर्मल ज्ञान रूपी गर्भ से जन्म प्राप्त किया है, वे ही द्विज कहलाते है । व्रत मन्त्र तथा संस्कारों से जिन्हें गौरव प्राप्त हुआ है, ऐसे इन उत्तम द्विजों को वर्णों के अन्तर्गत नहीं मानना चाहिए अर्थात् ये वर्णोत्तम है। जो क्षमा और शौच गुण को धारण करने में सदा तत्पर हैं सन्तुष्ट रहते हैं, जिन्हें विशेषता प्राप्त हुई है और निर्दोष आचरण ही जिनका आभूषण है, ऐसे उन द्विजों को सब वर्णों में उत्तम मानते हैं । इनके सिवाय जो मलिन आचार के धारक हैं, अपने को झूठमूठ द्विज मानते हैं, पाप का आरम्भ करने में सदा तत्पर रहते हैं और हठपूर्वक पशुओं का घात करते हैं वे ब्राह्मण नहीं हो सकते । उत्तराध्ययन में भी लिखा है
न वि मुण्डिएण समणो, ओंकारेण न बंभणो ।
न मुणी रण्णवासेण कुसचीरेण तापसी ।।