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________________ अनेकान्त 60/1-2 19 से तैयार की जाती है वह उनके (ऋषभदेव के) योग्य नहीं है। मुनिजन उद्दिष्ट (विशेष उद्देश्यपूर्वक तैयार किया हुआ) भोजन ग्रहण नहीं करते। ऋषभदेव के ऐसा कहने पर भरत ने इस भोजन सामग्री से गृहस्थ का व्रत धारण करने वाले पुरुषों को भोजन कराना चाहा। सम्राट ने आंगन के बोये हुऐ जौं, धान्य, मूंग उड़द आदि के अंकुरों से सम्यग्दृष्टि पुरुषों की छांट कर ली तथा उन (सम्यग्दृष्टि) पुरुषों को जिनके रत्न पिरोया गया था ऐसे स्वर्णमय सुन्दर सूत्र के चिह्न से चिन्हित कर भवन के भीतर करा लिया और उन्हें इच्छानुसार दान दिया। भरतेश्वर के द्वारा सत्कार पाकर ब्राह्मण गर्वयुक्त हो समस्त पृथ्वी पर फैल गये। एक बार भगवान ऋषभदेव ने अपने समवसरण में कहा कि भरत ने जिन ब्राह्मणों की रचना की है, वे वर्द्धमान तीर्थङ्कर के बाद पाखण्डी एवं उद्धत हो जावेंगे ऐसा सुनकर भरत कुपित होकर उनके मारने के लिए उद्यत हुए। भगवान ऋषभदेव ने हे पुत्र! इनका हनन मत करो (मा हननं कार्षीः) यह शब्द कहकर उनकी रक्षा की थी इसलिए आगे चलकर ये माहन (ब्राह्मण) इस प्रसिद्धि को प्राप्त हो गये। आचार्य रविषेण ने लिखा हैन जातिगर्हिता काचित् गुणाः कल्याणकारणम्। व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः।। पद्मचरित पर्व11/203 जीवों का जन्म दो प्रकार का है एक तो शरीर जन्म और दूसरा संस्कार जन्म। इसी प्रकार जैन शास्त्रों में जीवों का मरण भी दो प्रकार का माना गया है। पहले शरीर का क्षय हो जाने से दूसरी पर्याय में जो दूसरे शरीर की प्राप्ति होती है उसे जीवों का शरीर जन्य जानना चाहिए। इसी प्रकार संस्कार योग से जिसे पुनः आत्मलाभ प्राप्त हुआ है ऐसे पुरुष को जो द्विजपने की प्राप्ति होना है वह संस्कारज अर्थात् संस्कार से उत्पन्न हुआ जन्म कहलाता है। अपनी आयु के अन्त में शरीर का परित्याग करना संस्कारमरण है। इस प्रकार जिसे सब संस्कार प्राप्त हुए है जो ऐसा जीव मिथ्यादर्शनादिरूप पहले के पर्याय को छोड़
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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