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________________ अनेकान्त 60/4 मुनिराज जैसे संसार से विरक्त हैं वैसे हम नहीं हैं, अतः वे भी प्रभावित होकर अपने आचार-तप और लेश्या को बढ़ाने में प्रयत्नशील हो जाते है। अनियत विहार से यह परोपकार होता है। 3. भावना अनेक देशों में विहार करने से चर्या में होने वाला कष्ट, भूख, प्यास, शीत तथा उष्ण का दुःख संक्लेश रहित भावपूर्वक सहना होता है। जो वसतिका प्राप्त होती है, उसमें भी ममत्व भाव नहीं रहता। 4. अतिशय अर्थों में निपुणता अनियत विहार होने से अनेक देशों के सम्बन्ध में तथा वहाँ पाये जाने वाले शास्त्रों के शब्दार्थ के विषय में कुशल हो जाता है। विभिन्न आचार्यों आदि के दर्शन से नवीन एवं प्राचीन शास्त्रों की उपलब्धि होती है, उनको जानना देखना होता है। अन्य उत्कृष्ट साधुओं की चर्या आदि देखकर अपने आचरण में प्रवीणता होती है। 5. क्षेत्र अन्वेषण किस क्षेत्र में त्रस और हरितकाय की बहुलता है, प्रासुक विहार संभव नहीं है, कौन सा स्थान साधु के निवास के लिए उपयुक्त है अथवा अनुपयक्त है, कौन सा स्थान सल्लेखना के लिए श्रेष्ठ है आदि का अन्वेषण अनियत विहार का गुण है। यदि कोई साधु अपनी उत्कृष्ट सल्लेखना के लिए ऐसे स्थान का अन्वेषण करना चाहता है, जहाँ आचार्य के भक्तों का निवास हो, जहाँ का राजा क्रोधादि दोषों से रहित जिनधर्म से द्वेष न रखने वाला, क्षमाशील हो, जहाँ का मौसम भी न तो अत्यधिक उष्ण हो न शीत ही हो, तो उसके लिए अनियत विहार अत्यन्त आवश्यक अनियत विहार के सम्बन्ध में केवल यह काफी नहीं है कि साधु का विहार अनिश्चित, अनियन्त्रित और आकस्मिक हो। इस सम्बन्ध में भगवती आराधना की निम्न गाथा भी अत्यन्त उपयोगी है।
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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