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________________ 20 अनेकान्त 60/4 7।। सकता। परन्तु इतना विशेष लिखने का अर्थ यही ध्वनित होता है कि टीकाकार का अभिप्राय उत्कृष्टता की अपेक्षा तीन उत्तम संहनन प्रतीत होता है। जबकि मूलगाथा में तीन उत्तम संहनन का उल्लेख ही नहीं है। अतः यहाँ संहनन का अर्थ शारीरिक शक्ति से सहित लगाना ही उचित प्रतीत होता है। यदि अन्य ग्रंथों पर दृष्टि दी जाय तो आचार सार में इस प्रकार कहा है : ज्ञानसंहनननस्वांतभावनावलवन्मुनेः चिरप्रव्रजितस्यैकविहारस्तु मतः श्रुते।।27।। एतद्गुणगणामतः स्वेच्छाचाररतः पुमान्। यस्तस्यैकाकिता मा भून्मम जातु रिपोरपि ।।28।। अर्थ : बहुत काल के दीक्षित ज्ञान, संहनन, स्वांत भावना से बलशाली मुनि के एकाकी विहार करना शास्त्रों में माना है। परन्तु जो इन गुणों के समूह से रहित स्वेच्छाचार में रत पुरुष हैं उस मेरे शत्रु के भी एकाकी विहार कभी नहीं हो। श्री मूलाचार गाथा 150 में भी इसी प्रकार कहा है। ___ उपर्युक्त श्लोकों में भी मात्र अच्छे संहनन का कथन किया गया है पर यह नहीं लिखा कि तीन उत्तम संहननों में से कोई एक होना चाहिए। श्री मूलाचार प्रदीप में एकल विहार के संबंध में कुछ और भी कहा स्वेच्छावासविहारादिकृतामेकाकिनां मुनि। हीयन्ते सद्गुणा नित्यं वर्द्धन्ते दोषकोटयः।। 2224।। अचाहो पंचमे काले, मिथ्यादृग्दुष्टपूरिते। हीनसंहननानां च मुनीनां चंचलात्मनाम् ।। 2225 ।। द्वित्रितुर्यादिसंख्येन समुदायेन क्षेमकृत् । प्रोक्तोवासो विहारश्च व्युत्सर्गकरणादिकः।। 2226 ।।
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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