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________________ अनेकान्त 60/4 वाला साधु अकेले भी विहार करता है। इस पर पुनः प्रश्न उठता है कि वह एकल विहारी साधु कैसा होता है ? आचार्य लिखते हैं : तवसुत्तसत्तएगत्त भव संघडण धिदिस मग्गो य। पविआ आगम बलिओ, एयविहारी अणुण्णादो।।149 ।। अर्थः तप, सूत्र, सत्त्व, एकत्व भाव, संहनन, और धैर्य इन सबसे परिपूर्ण तथा दीक्षा और आगम में बली मुनि एकल विहारी स्वीकार किया गया है। ___ आचार वृत्ति अनशन आदि बारह प्रकार का तप है। बारह अंग चौदह पूर्व रूप सूत्र है। अथवा उस काल क्षेत्र के अनुरूप जो आगम है वह भी सूत्र, तथा प्रायश्चित्त ग्रंथ आदि भी सूत्र नाम से कहे गये हैं। शरीरगत बल को, अस्थि की शक्ति को अथवा भावों के बल को सत्त्व कहते हैं। शरीर आदि से भिन्न अपनी आत्मा में रति का नाम एकत्व है। शुभ परिणाम को भाव कहते हैं यह सत्व का कार्य है। अस्थियों और त्वचा की दृढ़ता वज्रवृषभ आदि तीन संहननों में विशेष रहती है। मनोबल को धैर्य कहते हैं। क्षुधादि से व्याकुल नहीं होना धैर्य गुण है। जो इनसे युक्त है, साथ ही दीक्षा तथा आगम से भी बलवान है अर्थात् तपश्चर्या से वृद्ध है, आचार ग्रंथों के अनुकूल चर्या में निपुण हैं ऐसे गुण विशिष्ट मुनि को ही जिनेन्द्रदेव ने एकल विहारी होने की अनुमति दी है। __ उपरोक्त गाथा के संदर्भ में विशेष विचार किया जाय तो टीका के अनुसार अन्य सभी गुणवाले साधु तो वर्तमान में हो सकते हैं परन्तु केवल तीन उत्तम संहनन वाला होना वर्तमान पंचम काल में संभव नहीं है। इस पर प्रश्न उठता है कि यदि पंचम काल में तीन शभ संहनन न होने से कोई भी साधु एकल विहार नहीं कर सकता, तो फिर इस ग्रंथ में इतनी चर्चा ही क्यों की गई ? केवल एक गाथा में इतना ही लिखना ही पर्याप्त था कि वर्तमान पंचमकाल में एकल विहार हो ही नही
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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