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________________ 2 अनेकान्त 60/4 सम्पादकीय मूलाचार में वर्णित श्रमणचर्या एवं वर्तमान श्रमणचर्या विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में पुरुषार्थमूलक श्रमणसंस्कृति का सर्वातिशायी महत्त्व स्वीकृत है। श्रम या पुरुषार्थ को महत्त्व प्रदान करने के कारण ही इसे श्रमण संस्कृति कहा गया है । चर्या शब्द चर् धातु से यत् प्रत्यय तथा स्त्रीत्व विवक्षा में टाप् प्रत्यय से निष्पन्न रूप है, जिसके अनेक अर्थ हैं- आहार, विहार, व्यवहार, व्रत, आचरण आदि | चर्या श्रमण संस्कृति के प्रमुख वाहक जैन धर्म को सुव्यवस्थित करने में मेरुदण्ड के समान मानी गई है। श्री बट्टकेर आचार्य द्वारा प्रणीत मूलाचार श्रमणचर्या का विवेचक मूल ग्रन्थ है। जैन चर्या सामर्थ्य के आधार पर दो भागों में विभक्त है- श्रमणचर्या और श्रावकचर्या । श्रमणचर्या मोक्ष का साक्षात् मार्ग है, जबकि श्रावकचर्या परम्परया मोक्षमार्ग कहा जा सकता है। (क) मूलाचार में वर्णित श्रमणचर्या मूलगुण मुमुक्षु श्रमण जिन 28 गुणों को अनिवार्य रूप से सर्वदेश पालन करता है, उन्हें मूलगुण कहा गया है। मूल जड़ को कहते हैं । जैसे जड़ के बिना वृक्ष की स्थिति संभव नही है, वैसे ही मूलगुणों के बिना साधु या श्रमण की भी स्थिति संभव नही है । यदि कोई साधु मूलगुणों को धारण किये बिना उत्तरगुणों या अन्य चर्या का पालन करता है तो उसकी स्थिति वैसी ही कही गई है जैसी कि उस व्यक्ति की, जो अपनी अंगुलियों की रक्षा के लिए मस्तक काट देता है । इसी कारण मूलाचार के रचयिता श्री बट्टकेर आचार्य ने सर्वप्रथम मूलगुणों में विशुद्ध संयमियों को नमस्कार करके जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित 28 मूलगुणों का निर्देश किया है । पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियरोध, छह आवश्यक, लोच, आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तघर्षण, स्थिति भोजन और
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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