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अनेकान्त 60/3
भट्टारकों ने अपने शिथिलाचार को पुष्ट करने कुन्दकुन्द श्रावकाचार उमास्वामी श्रावकाचार पूज्यपाद श्रावकाचार, अकलंक बिंब प्रतिष्ठा पाठ आदि उन्हीं आचार्यों के नाम से रचवा कर मंदिरों के शास्त्र भंडारों में विराजमान करा दी। और उनके नाम से क्रियाकांड संचालित करते रहे । इनका खुलाशा पं. श्री जुगल किशोर जी मुख्तार, आचार्य श्री सूर्य सागर जी, पं. श्री पन्नालाल जी दूंनी वाले, पं. श्री मिलाप चन्द जी कटारिया तथा पं. श्री राजकुमार जी शास्त्री ने अपनी कृतियों में किया है, जो पठनीय हैं। दूसरे, पंचामृत अभिषेक का सम्बन्ध यक्ष-यक्षणी की पूजा-पद्धति से भी जुड़ा प्रतीत होता है। इन तथ्यों का अन्वेषण करना अपेक्षित है 1
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जलाभिषेक या पंचामृत अभिषेक पूजा की पद्धति है । इसका सम्बन्ध सम्यग-मिथ्या की धारणा की अपेक्षा अहिंसक पूजा पद्धति के विवेकपूर्ण औचित्य और दार्शनिक संगतता से जुड़ा है। यह भी विचारणीय है कि अहिंसा की साधना हेतु अ-स्नान व्रत धारी मुनिराज जब परम लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं, तब उनकी मूर्ति के अभिषेक का क्या औचित्य है और फिर जब गृहस्थावस्था में जिस द्रव्य या द्रव्यों (रसों) से हम स्नान नहीं कर सकते, उन रसों से जिनेन्द्र देव का अभिषेक करना कितना युक्ति संगत कहा जा सकता है। बिना किसी की भावनाओं को आहत किये यह भी विचारणीय है कि पवित्र - मर्यादित दूध-घ - घी - दही मिलना सर्वत्र सुलभ नहीं है, अभिषेक के जल / दूध में असंख्य जीव राशि उत्पन्न हो जाती है, मूर्तियों के रंध्रों में दूध-दही से चींटी आदि की स हिंसा होती है, गंधोदक जल की विराधना, अहिंसा के और भी दार्शनिक पहलू है, जो मन को कुरेदते हैं उक्त तथ्य आगे अन्वेषण का आधार बन सकते हैं। 1
निष्कर्षः
1. दार्शनिक और औचित्य की दृष्टि से जिन शासन में मूलतः जलाभिषेक की परम्परा ही रही है। पंचकल्याणक के समय नवीन