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अनेकान्त 60/3
निकाचित रूप भी मिथ्यात्वादि कर्म कालुष्य का क्षय देखा जाता है। (धवला 6/1-9-9, 22/427/9) योगेन्दु देव के अनुसार तीर्थों में देवालयों में देव नहीं हैं, जिनदेव तो देह देवालय में विराजमान हैं (योगसार 42/1)।
जिनेन्द्र देव की पूजा के पूर्व प्रतिमाओं के प्रक्षाल एवं अभिषेक करने की परम्परा है। अभिषेक प्रासुक जल से प्रायः किया जाता है। कहीं कहीं परम्परानुसार जल, इक्षु रस, घी, दुग्ध और दही के द्वारा भी किया जाता है, इसे पंचामृत अभिषेक कहते हैं। प्रस्तुत आलेख में जलाभिषेक एवं पंचामृत अभिषेक की परम्परा और उसके औचित्य पर आगम के आलोक में, तथ्यों का प्रकाशन हैं जिससे कि विज्ञ-शोधार्थी मनीषि सम्यक निष्कर्प ग्रहण कर सकें।
राष्ट्र संत पू. आचार्य श्री विद्यानंद जी मुनिराज का आलेख 'जिनार्चना के अंगः जलाभिषेक और अष्ट द्रव्य' सामने है। यह आलेख जैन बोधक, समन्वय वाणी (1-15 दिस., 06) एवं वीर, मई 07 में प्रकाशित हुआ है। आचार्य श्री ने इस आलेख में निम्न दो निष्कर्ष ग्रहण किये हैं।
1. पंचामृत अभिषेक वैदिक संस्कृति में: डॉ. वासुदेव उपाध्याय आदि इतिहास-संस्कृति के ज्ञाता विद्वानों के विचार में वैदिक परम्परा में देवताओं को पंचामृत स्नान (अर्थात् जल, इक्षुरस, घी, दही, दूध के मिश्रण से स्नान) कराने की प्रथा का आगमन संभवतः ई. छठी शती या इसके बाद हुआ ऐसा भी विद्वानों का विचार है। इस सम्बंध में अधिकाधिक अन्वेषण की आवश्यकता है।
2. जलाभिषेक की प्राचीनता
जिन पूजा में मूर्ति का जलाभिषेक किए जाने की परम्परा अति प्राचीन मानी जाती है। अभी कुछ पुरातात्विक अवशेष भी मिले हैं, जो उक्त