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अनेकान्त 60/3
शिथिलाचार को दूर करने के लिए और मुनियों का वास्तविक आचरण बताने के लिए "धर्मामृत' ग्रन्थ की रचना की तथा स्वयं ही इस ग्रन्थ के पदकृत्य भी लिखे। स्वोपज्ञ टीका होने से यह ग्रन्थ जिनागम के अन्य प्रमाणों का भी सटीक संकलन हो गया। इस ग्रन्थ का श्रावकोपयोगी भाग “सागार धर्मामृत' नाम से प्रसिद्ध है। तथा इस ग्रन्थ का परिगणन उत्कृष्ट श्रावकाचारों में भी होता है। ___ जैनाचार्यों ने श्रावक की चर्या को भी धर्म (संयम) माना है। यह धर्म औपचारिक नहीं है अपितु कर्म निर्जरा का प्रमुख स्थान है। श्रावक की चर्या करने वाला मनुष्य या तिर्यञ्च सामान्य सम्यग्दृष्टि से भी अधिक निर्जरा जीवनभर करता रहता है। असंख्यात् गुणीत होने वाली निर्जरा में श्रावक की दैनिक चर्या अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। अनेक श्रावकाचारों में श्रावक की इस चर्या को समझाने के लिए ग्यारह प्रतिमाओं का सहारा लिया है।
जहाँ आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रतिमाओं का मात्र नाम निर्देश ही किया है, वहीं श्रावकाचार ग्रन्थ के आद्य प्रणेता आचार्य समन्तभद्र ने ग्यारह प्रतिमाओं को परिभाषित करते हुए श्रावकों का मार्ग प्रशस्त कर दिया। प्रायः सभी श्रावकाचारकारों ने आ. समन्तभद्र के आशय को मूल में रखकर श्रावक की क्रियाओं को अपने-अपने युग में और अधिक स्पष्ट करने का प्रयास किया है।
वर्तमान युग में भी प्रतिमाधारी श्रावकों के मन में जिज्ञासाओ का समुद्र हिलोरे मारता रहता है। किस प्रतिमा तक व्यापार किया जा सकता है? किस प्रतिमा तक वाहन का प्रयोग संभव है? क्या द्वितीय प्रतिमा की सामायिक तृतीय प्रतिमा की सामायिक से भिन्न है? छठवीं प्रतिमा से पहले क्या रात्रि भोजन करा सकते हैं? और भी बहुत सारे प्रश्न श्रावकों के मानस-पटल में यदा-कदा आते रहते हैं। इन में से कुछ प्रश्नों का तार्किक समाधान पं. आशाधर जी ने अपने ग्रन्थ में संकलित किया है। अतः सागार धर्मामृत के आधार से यहाँ ग्यारह प्रतिमाओं का