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________________ सागार धर्मामृत में ग्यारह प्रतिमाओं का विवेचन - पं. पुलक गोयल भ. महावीर की वाणी का संरक्षण प्राचीन काल से जैन आचार्यों ने अपना प्रमुख कर्तव्य मानकर किया। संरक्षण, ग्रन्थों में लिपिबद्ध करने मात्र से नहीं हो सकता था, वाणी के अनुसार आचरण भी शुद्ध रखना आवश्यक था। अतः आचरणवान् (मुनि) ही जिनागम का संकलन (लेखन) कर सकता है, यह मान्यता अभी भी बहुमत में है। वस्तुतः आचरणहीन व्यक्ति आगम से भी अपने शिथिलाचार के पोषण करने की वांछा रखता है। यही कारण है कि सभी ग्रन्थकर्ता महान् ज्ञाता होने के साथ ही आचरण करने एवं कराने वाले आचार्य हुए हैं। परन्तु परिस्थितियों हमेशा अनुकूल नहीं रहती हैं। जैन साधुओं से ओतप्रोत इस भारत वसुधा पर कई बार जैन संतों एवं जैन ग्रन्थों का कत्लेआम भी हुआ। प्रारम्भ से ही वेद-विरोधी होने के कारण आपत्तियों आती रही है और जैन आगम के ज्ञाता, वक्ता और श्रोता जुगनुओं की तरह कहीं-कहीं दृष्टि गोचर होने लगे।' सिद्धांत कभी नहीं बदलता, परन्तु आचरण में परिस्थिति के अनुसार कुछ परिवर्तन होता रहता है। उस समय भी जैनत्व की रक्षा के लिए कुछ मुनियों ने सार्वजनिक स्थानों पर कोपीन पहनकर निकलना और एक ही स्थान (मठादि) में बने रहना प्रारम्भ किया और भट्टारक युग का प्रारम्भ हो गया। भट्टारकों का अस्तित्व मुगल शासन से एवं अन्य विरोधियों से अपने जिन मंदिर, जिन मूर्तियाँ और जैन शास्त्रों का संरक्षण के लिए था। संरक्षण का कार्य तो उन्होंने बहुत किया परन्तु ज्ञान का प्रचार-प्रसार रुक सा गया। ज्ञान न होने के कारण श्रावकों का आचरण दिन-प्रतिदिन शिथिलता को प्राप्त होता गया। यही अवसर था जब पं. आशाधर जी ने श्रावकों में व्याप्त इस
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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