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अनेकान्त 60/3
सीमाओं की रक्षा करने में तत्पर थे। उन शस्त्रधारियों को ऋषभदेव ने क्षत्रिय-वर्ण की संज्ञा प्रदान की थी। प्रत्येक देश में अपनी तथा दूसरों की रक्षा के लिए ऐसे सैनिकों व पुलिस की आवश्यकता पड़ती ही है, जो समय-समय पर उनकी रक्षा कर सकें। अतः जिन्हें अस्त्रशस्त्रों के चलाने में कुशलता प्राप्त थी, उन्होंने इस असिकर्म अर्थात् सैनिकवृत्ति को स्वीकार कर लिया था। जब देश में आन्तरिक क्रान्ति या गृहयुद्ध हो, साम्प्रदायिक द्वेषभाव से अराजकता फैल रही हो, धर्मविग्रह पैदा हो गया हो या कोई अन्य देश सीमा का अतिक्रमण करने हेतु अस्त्रशस्त्र सहित फौज लिए खड़ा हो, तब इन सैनिकों पुलिसकर्मियों का उपयोग किया जाता रहा है और आज भी किया जाता है। अतः असिकर्म समाज, धर्म और राष्ट्र की रक्षा के महत्वपूर्ण प्रश्न की सीमा तक विस्तृत है। निष्कर्ष यह है कि अस्त्र-शस्त्र के व्यवहार द्वारा अपनी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति एवं पारिवारिक भरण-पोषण करना असिकर्म कहलाता है।
2. मषिकर्म
लेखन के द्वारा आजीविका अर्जन करना मपिकर्म कहलाता है। इसका विशेष सम्बन्ध लिपिक के कार्यों से है जो गज्यीय व्यवस्था के अन्तर्गत विभिन्न कार्यालयों का सचालन करता था तथा प्रशासनिक कार्यों में महत्वपूर्ण सहयोग देता था। यह भी एक लाक्षणिक शब्द है और इसमें लेखक, लिपिक, गणक आदि सभी शामिल हैं। लेखपत्र प्रस्तुत करना, प्रज्ञापन लिखना, आज्ञा लिखना आदि कार्य लेखन के माने जाते थे। इस लेखक के ऊपर एक अधिकारी भी होता था, जिसके निर्देशन में उसे लेखकार्य प्रस्तुत करना होता था। 72 कलाओं में "लेख" भी एक कला है, जिसे पूर्व में मषिकर्म कहा जाता था। ऋषभदेव द्वारा लिपि व संख्या का अविष्कार किया जा चुका था। भले ही उस समय शिक्षा पद्धति मौखिक रही हो और लिखित ग्रन्थों का अधिक चलन न रहा हो, फिर भी यह स्पष्ट होता है कि आदिकाल मे लेखन कार्य होता था। इस मपिजीवी वर्ग को भी क्षत्रियवर्ग के समान महत्व दिया जाता था।