SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ “आदिपुराण में वर्णित आजीविका के साधन एवं आर्थिक विचार" . - डॉ. सुपार्श्व कुमार जैन जैनाचार्यों ने मनुष्यों के दो भेद किए हैं- अकर्मभूमिज एवं कर्मभूमिज। अकर्मभूमि भोगभूमि का अपर नाम है। चौदहवें कुलकर श्री नाभिराय के समय में ही भोगभूमि की समाप्ति एवं कर्मभूमि का प्रवेश हो चुका था। साथ ही मानव श्रम व पुरुषार्थ के धरातल पर आ खड़ा हुआ। कर्मभूमि : जो अच्छे और बुरे कार्यों का आश्रय हो, उसे कर्मभूमि कहते हैं। अर्थात् स्वर्गादिक विशेष स्थानों को प्राप्त कराने वाले शुभ कार्यों व अन्तिम सातवें नरक तक पहुंचाने वाले अशुभ कार्यों का उपार्जन तथा कृषि आदि षट्कर्मों का आरम्भ इसी भूमि पर आरम्भ होने के कारण इसे कर्मभूमि कहा जाता है। देवकुरू और उत्तरकुरू को छोड़कर भरत, ऐरावत और विदेह ये सब कर्मभूभियां हैं। प्रत्येक के पाँच-पाँच भेद होने से कुल पन्द्रह कर्मभूमियाँ हैं। ____कर्मभूमि का वास्तविक प्रारम्भ नाभिराय के पुत्र ऋषभदेव के समय से होता है। कर्मभूमि के आगमन पर कालवश कल्पवृक्ष निःशेष हो गये, औषधियों के शक्तिहीन हो जाने पर प्रजा में रोग, व्याधि तथा अन्य अनेक बाधाओं से व्याकुलता बढ़ने लगी थी। शीत, आतप, महावाय और वर्षा का प्रकोप अति उग्र होने लगा था, भूख, प्यास आदि की बाधायें तीव्र हो गई थी, शिक्षा व दीक्षा की समस्याएं बढ़ गयीं, प्रजा धन कमाने की आर्थिक क्रियाओं से अपरिचित थी, वाणिज्य व्यवहार और शिल्प से रहित थी.... आदि अनेक समस्याओं का न केवल जन्म हो चुका था, अपितु इनकी भयंकरता भी बढ़ने लगी थी। भयग्रस्त प्रजा त्राहि-त्राहि करती हुई जब नाभिराय की शरण में पहुंची तो उन्होंने उस प्रजा को अपने विशिष्ट ज्ञानी पुत्र ऋषभदेव के पास भेज दिया।
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy