SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 60/3 __ चैतन्यचन्द्रोदय के अन्त में 8 पद्यों में सिद्धान्मुदेऽहं मनसा नमामि' कहकर आचार्यश्री ने गुणस्मरणपूर्वक जो सिद्ध परमेष्ठी की स्तुति की है, वह अनुपम एवं अद्वितीय है तथा सभी श्रमणों एवं श्रावकों द्वारा सतत मननीय है। वास्तव में एक शतक में लिखित संस्कृत वाड्मय के विशाल सम्मर्द में आचार्य विद्यासागर जी महाराज का अवदान उल्लेखनीय है। भाषा में उनकी अनुपम पकड़ है। 'चैतन्यचन्द्रोदयचन्द्रिकायै', 'यद्वस्तुतो वस्तु समस्तमस्तु', 'निःसंगसंगाच्च गुरूपदेशात्’, ‘एकोऽपि कोऽपीति समं समस्तु, 'अनङ्गमङ्गं बहिरन्तरङ्ग' आदि स्थलों पर शब्द नाचते हुए से प्रतीत होते हैं। मुझे विश्वास है कि चैतन्यचन्द्रोदय जैसे सैद्धान्तिक कृति को पाकर संस्कृत समाज प्रमुदित होगा तथा भव्यों की मोक्षमार्ग में प्रवृति होगी। आचार्यश्री के चरणों में विनम्रतापूर्वक नमोऽस्तु के साथ डॉ. जयकुमार जैन उपाचार्य एवं अध्यक्ष-संस्कृत विभाग एस.डी. (पी.जी.) कालेज मुजफ्फरनगर (उ.प्र.)- 251001
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy