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पाठकीय प्रतिक्रिया आज ही अनेकांत का जुलाई-दिसंबर 2006 का अंक प्राप्त हुआ। इसमे आपका एक लेख ‘मध्यलोक में भोगभूमियाँ - एक अनुचिन्तन' पढने को मिला। इस लेख के संबंध में अत्यन्त विनय के साथ निवेदन कर रहा हूँ। कृपया नीचे लिखे बिंदुओं पर विचार कीजिएगा :___ 1. पृष्ठ 71 पर आपने सर्वार्थ सिद्धि के ध्वजदंड से सिद्ध लोक को 29 योजन 425 घनुष ऊपर लिखा है। मेरी राय में यह ठीक नहीं है। सर्वार्थ सिद्धि से 12 योजन ऊपर अष्टम पृथ्वी है, जो 8 योजन मोटी है। इसके ऊपर 2 कोस का घनोदधिवलय + 1 कोस का घनवातवलय+ 1575 धनुष का तनुवातवलय है। अर्थात् सर्वार्थ सिद्धि के ध्वजदंड से 21 योजन -425 धनुष ऊपर तो लोकांत है । इस तनुवातवलय के अंतिम 525 धनुष में सिद्ध लोक है। नोट- यह 525 धनुष- छोटे योजन के अनुसार है जबकि तनवातवलय का 1 कोस, वडे योजन वाला है। अर्थात् तनुवातवलय के 1/3 भाग में सिद्ध लोक है। इसे हमें बड़ा तथा छोटा कोस का अन्तर करने के लिए 500 से गुणा करना चाहिए। अर्थात् तनुवातवलय के 1/1500 वें भाग में सिद्ध लोक है। निष्कर्षसर्वार्थसिद्धि के ध्वजदंड से 12 योजन + 8 योजन + 2 कोस + 1 कोस + तनुवातवलय का 1/1500 भाग कम तनुवातवलय = 21 योजन से कुछ कम ऊपर सिद्ध लोक है। संदर्भ- मुख्तार ग्रंथ भाग 1 पृष्ठ 610।
2. पृष्ठ 77 पर लिखा है कि भोगभूमिज जीवों में अपर्याप्त अवस्था में मिथ्यात्व एवं सासादन दो गुणस्थान होते हैं। मेरी राय में यह ठीक नहीं है। कोई जीव मनुष्यायु का बंध करके क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर मरण करे, तो उसका जन्म भोगभूमि में ही तो होगा। अतः अपर्याप्त • अवस्था में प्रथम, द्वितीय तथा चतर्थ ये तीन गुणस्थान होते हैं। आपने
अपर्याप्त भोगभूमिजों के गुणस्थान, तिलोयपण्णत्ति 4/416 के आधार से लिखे हैं। पर इसका अर्थ गलत है। कृपया तिलोयपण्णत्ति के ही 4/424 का अवलोकन करें। भोग पुण्णए........पुण्णे अर्थ- अपर्याप्त अवस्था में