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अनेकान्त 60/1-2
प्रोल्लासामृत वारिवाहुमखिलत्रैलोक्य चिन्तामणिम्।। कल्याणाम्बुजषडसंभवसरः सम्यक्त्वरत्नं कृतौ
यो धत्ते हृदि तस्य नाथ सुलभाः स्वर्गापवर्गश्रियः।। उपासकाध्ययन 461, 462 8. यशस्तिकम्पूगत उपासकाध्ययन, श्लोक 463, 464, 465 9. वही, श्लोक 465-466 10. वही, श्लोक 469-475 11. वही, श्लोक 476-480 12. आवश्यक नियुक्ति गाथा 10,11
उपाचार्य - जैन-बौद्ध दर्शन विभाग संस्कृत विद्या एवं धर्म विज्ञान संकाय
__का. हि. वि. वि., वाराणसी
भक्ति मुक्तिदायिनी जन्मजीर्णाटवीमध्ये, जनुषान्धस्य मे सती। सन्मार्गे भगवन्भक्तिः भवतान्मुक्तिदायिनी।।
- क्षत्रचूडामणि, 6/34 जैसे किसी विशाल और पुराने जंगल में मार्ग भ्रष्ट किसी जन्मान्ध पुरुष को किसी प्रकार यथार्थ राह मिल जावे, तो वह अभीष्ट स्थान पाकर बहुत संतुष्ट होता है। उसी प्रकार हे भगवन्! में भी सन्मार्ग को भूलकर अनादिकाल से दुःखद संसार में भटक रहा हूँ। अब आपसे यही प्रार्थना है कि आपके प्रसाद से मुझे वह समीचीन भक्ति प्राप्त हो, जिससे मैं मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होकर परम्परया मुक्ति को प्राप्त कर सकूँ।