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________________ 122 अनेकान्त 60/1-2 विजय प्राप्त करने के लिए स्तुति विद्या की प्रसाधना करता हूं। श्री अर जिन स्तवन में भी लिखा है- 'गुणकृशमपि किञ्चनोदितं मम भवताद् दुरितासनोदितम्” जिनेश्वर के विषय में जो अल्प गुणों का कीर्तन किया गया है, वह पाप कर्मों के विनाश में समर्थ होवे। मानतुङ्गाचार्य ने लिखा है त्वत्संस्तवेन भव-सन्तति-सन्निबद्धं, पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीर-भाजाम् ।। भक्तामरस्तोत्र - 7 अर्थात् मानव हृदय में श्री जिनेन्द्रदेव के गुणों का प्रकाश होते ही देहधारी प्राणियों के जन्म जन्मान्तरों से उपार्जित एवं बद्ध पाप-कर्म तत्काल नष्ट हो जाते हैं। मुक्ति-प्राप्ति : जैनदर्शन के अनुसार जीवन का चरम एवं परम लक्ष्य है मोक्ष । मोक्ष का अर्थ है- अष्टविध कर्मों से विमुक्त होकर शुद्ध चैतन्य स्वरूप परमात्म पद को प्राप्त करना। संसारी जीव निरन्तर मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग के द्वार से पापास्रव करके कर्म-बन्धन में बंधता रहता है। परिणाम स्वरूप जन्म-जन्मातरों तक चतुर्गतियों में परिभ्रमण करता रहता है। इस अनन्तानन्त संसार की भव-परम्परा को काटने का सबसे सरल एवं सुगम साधन भगवद्-भक्ति है। इसलिए जैन स्तोत्रकारों ने स्तोत्र रचना का प्रमुख उद्देश्य मुक्ति-प्राप्त माना है। आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं कि इस संसार में स्तोता को मोक्ष पथ सुलभ है, स्तोता के अधीन है, अर्थात् जिनेन्द्र भगवान की श्रद्धापूर्वक स्तुति करके स्तोता सम्यग्दर्शनादि रूप मोक्ष मार्ग को प्राप्त करता है और परम्परया मोक्ष को भी प्राप्त कर सकता है तब ऐसा कौन विवेकी पुरुष है जो श्री नमि जिन की स्तुति न करें। किमेवं स्वाधीन्याज्जगति सुलभे श्रेयसपथे, स्तुयान्न त्वा विद्वान् सततमभिपूज्यं नमिजिनम् ।।
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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