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अनेकान्त 60/1-2
वन्दन करता हूं। इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रभु में विद्यमान गुणों को अपने में उद्भूत करने के उद्देश्य से उपासक, गुणवान् उपास्य की उपसना करता है ।
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2. शान्ति - प्राप्ति :- जगत का प्रत्येक प्राणी जन्म, जरा एवं मरण के दुःखों से पीड़ित है । राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ आदि विकारों से ग्रस्त होने से अशान्त है । भव्य जीव संसार के इन जन्ममरणादि कष्टों से मुक्त होकर रागादि विकारों का नाश करके आत्मशान्ति प्राप्त करना चाहता है। जिस मन रूपी मन्दिर में ज्योतिस्वरूप प्रभु विराजमान हैं, प्रकाशमान हैं, उस मन्दिर में विकार रूपी अन्धकार को कोई अवकाश नहीं रहता। अतः स्तुतिकार स्तोत्रों की रचना कर प्रभु से आत्मशान्ति की कामना करते हैं । इस दृष्टों से 'स्वयम्भूस्तोत्र' का निम्न श्लोक दृष्टव्य है
'स्वदोषशान्तया विहितात्मशान्तिः शान्तेर्विधाता शरणं गतानाम् । भूयाद् भवक्लेशभयोपशान्त्यै शान्तिर्जिनो मे भगवान् शरण्यः । । ' जिन शान्तिनाथ भगवान ने अपने दोषों की शान्ति करके आत्मशान्ति को प्राप्त किया है और जो शरणागतों के लिए शान्ति के विधाता हैं, वे भगवान् शान्ति जिन मेरे शरण हैं । ऐसे ही श्री शान्ति जिन मेरे भवभ्रमण के क्लेशों की और भयों की अपशान्ति के लिए निमित्त बनें ।
पाप-क्षय :- वीतरागदेव के अनन्त ज्ञानादि पवित्र गुणों का स्मरण चित्त (आत्मस्वरूप) को पाप मलों से पवित्र करता है । इसलिए स्तुतिकार पापमुक्ति के उद्देश्य से भी स्तोत्र - रचना करते हैं। आचार्य समन्तभद्र ने 'स्तुतिविद्या' के प्रारम्भ में स्पष्ट रूप से कहा है स्तुति रूप विद्या की सिद्धि में भली प्रकार संलग्न होने से शुभ परिणामों द्वारा पापों पर विजय प्राप्त होती है और उसी का फल कामस्थान मोक्ष की प्राप्ति है । इसलिए मैं जिनेन्द्रदेव के पद सामीप्य को प्राप्त करके, पापों को जीतने के लिए मोहादिक पाप कर्मों अथवा हिंसादिक दुष्कृतों पर