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अनेकान्त 60/1-2 तीर्थकर चरित में दया, क्षमा, अहिंसा, संयम, शील, तप आदि मानवीय गुणों के कारण प्राणी संरक्षण के भाव उत्पन्न हुए हैं जिनके कारण तीर्थंकर कर्म का बंधकर निर्वाण प्राप्त किया है। मानव तो ओर आसानी से इन गुणों को ग्रहण कर अपना उद्धार कर सकता है।
सह आचार्य एवं अध्यक्ष जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग
सु.वि.वि. उदयपुर (राज.)
सदर्भः
1. वर्णी जिनेन्द्र जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, भाग-2, पृ. 371 2. जैन लक्षणावली, भाग-2, पृ. 494 3. जैन, जयकुमार, वादिराज कृत पार्श्व चरित का समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. 49 4. वही, पृ. 56 5. इतिश्री कालिकाचार्य सन्तानीय श्री भावदेव सूरि विरचिते श्री पार्श्वनाथ 6. वीर सुएण य जसदेव सेट्ठिणा पारसणाह चरिहं, पृ. 503 7. जिन रत्न कोश, पृ. 244 8. जैन, जयकुमार, वादिराज कृत पार्श्वनाथ चरित का समीक्षात्मक अध्ययन, पृ.
53-54 9. शास्त्री, नेमिचंनद्र, प्राकृत भाषा सहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ. 354 10. अठारह संधि एउ पुराणु, ते सट्ठि पुराणे महापुराण, पासणाहचरिउ 10/20 11. शास्त्री, देवेन्द्र कुमार, अपभ्रंश साहित्य की शोध प्रवृत्तियां, पृ.56 12. जैन, जयकुमार, वादिराजकृत पार्श्वनाथचरित का समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. 54 13. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-6, पृ.121 14. वही, पृ. 122 15. जिनरत्न कोश, पृ. 245 16. सघवी पाडा भण्डार, पाटन सं. 27 17. शास्त्री, परमानंद, अपभ्रंश भाषा पासचरिउ और कविवर देवचन्द्र, लेख, अनेकान्त
वर्ष 11, किरण 4-5 जून-जुलाई 1952