SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 9
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पाठकीय अभिमत-1 अनेकान्त जुलाई - दिसम्बर 2004 के पृष्ठ 2-5 में पं. पद्मचन्द्र जी शास्त्री की लेखनी से प्रसूत एक लेख छपा है - "दिगम्बरत्व को कैसे छला जा रहा है ?" पंडित जी उन थोड़े से विद्वानों में हैं जिनने जैन धर्म व दर्शन शास्त्रों का बड़ी गहनता से अध्ययन किया है। पंडित जी अब दशम दशक की ओर बढ़ गए हैं । किन्तु फिर भी सतत चिन्तन करते रहते हैं। उनका प्राकृत भाषा का ज्ञान भी किसी से कम नहीं रहा है इसका पूरा परिचय उक्त लेख को पढ़ने से पूरी तरह साबित हो रहा है । प्रसंग है कि क्या कुन्दकुन्द स्वामी अपरनाम पद्मनंदि आचार्य विदेह में विराजमान सीमंधर स्वामी से ज्ञानसम्बोधन प्राप्त करने गए थे । कुछ वर्षो पहले जब कुन्दकुन्द स्वामी का द्विसहस्राब्दि उत्सव मनाया गया था तब मैंने एक छोटी सी किताब लिखी थी “कुन्दकुन्द नाम व समय" । उसमें मैंने भी इस कथा पर प्रश्न उठाया था । इस प्रश्न का सही-सही जबाब अब मिल गया है । देवसेन द्वारा लिखित दर्शनसार संग्रह की निम्न गाथा - "जइ पउमणदिणाहो सीमंधरसामि - दिव्वणाणेण । ण विवोह तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति ।" से, पंडितजी ने स्पष्टता व निर्भीकता के साथ निष्कर्ष निकाला है कि उक्त गाथा में "विवोहइ" शब्द से यह साबित हो रहा है कि पद्मनंदि आचार्य स्वयं सीमंधर थे और उनने अपने दिव्य ज्ञान के द्वारा श्रमणों को संबोधित किया था। चूंकि श्वेताम्बरों ने धर्म की सीमाओं का उल्लंघन कर दिया था अतः उन्होंने दिगम्बर धर्म की रक्षा के लिए आगमानुसार दिगम्बरत्व की सीमाओं का अवधारण किया और कराया । अतः इस गाथा के अनुसार पद्मनंदि स्वयं सीमंधर थे । यदि वे सीमंधर तीर्थकर के समवसरण में गए होते तो गाथा में 'विवोहिअ' शब्द होता ।
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy