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अनेकान्त-58/1-2
प्राचीनता का प्रमाण है। भग्न शीश व आभामण्डल होने के बावजूद भी शेष कटिप्रदेश, धड़ व पैर अत्यन्त सुन्दर हैं। प्रतिमा के दोनों हाथ भी खण्डित हैं। इस प्रतिमा के पैरों के दोनों ओर दो खड्गासन लघु दिगम्बर जिन प्रतिमाएँ हैं जिनके दोनों ओर ऊपर दो-दो पद्मासन लघु मूर्तियाँ तपस्यारत भावों में उकेरी हुई है। मुख्य प्रतिमा के भग्नमुख व आभा मण्डल के दांयी व बांयी ओर पुरुष स्त्री युग्म के आकाश गमन करते गन्धर्व दम्पति दर्शित है। संभवतः वे प्रतिमा का अभिषेक कर रहे हैं। मूर्ति के पैरों के नीचे लांछन, वाहन विन्यास न होने से दिगम्बर होने से यह निश्चित ही दिगम्बर जैन धर्म की उत्कृष्ट कला शिल्प निधि है। ___ गागरोन दुर्ग से 1953 में अवाप्त और राजकीय संग्रहालय में प्रदर्शित दसवीं सदी की एक सुन्दर प्रतिमा जैन धर्म के प्रर्वतक भगवान ऋषभदेव की है, 25 सेंटीमीटर लम्बे व 22 सेंटीमीटर ऊंचे सिलेटिया पाषाण खण्ड पर उत्कीर्ण भगवान ऋषभदेव की यह प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में है। शिल्प और तपस्या भाव से सुन्दर बन पड़ी इस प्रतिमा के ध्यानावस्था के दोनों हाथों की अंगुलियाँ व हथेली भग्न है। प्रतिमा के पैरों के नीचे वृषभ की आकृति बनी हुई है जिसके दांयी तथा बांयी ओर दो विपरीत मुखाकृतियों वाली सिंहाकृतियाँ बनी हुई है। प्रतिमा का आसन उठाने की मुद्रा में नीचे की ओर दो पुरुषाकृतियाँ भारसायक रूप में उकरी हुई है। प्रतिमाँ के आसपास दो-दो खण्डित लघु प्रतिमाएँ भी है। __ सारतः उक्त जैन प्रतिमाओं की अवाप्ति से प्रमाणित होता है कि संभवतः 10वीं सदी में गागरोन में वैष्णव मत के साथ-साथ जैनधर्म का भी बोल-बाला रहा होगा और वहाँ कदाचित् कोई प्राचीन जैन मन्दिर अवश्य रहा होगा जो किसी कारण वश भग्न होने से उसके अवशेष रूप की उक्त प्रतिमाएँ व उतरांग पटियां इस दुर्ग में बाद में चुन दी गई हो। आज भी ये प्रतिमाएँ शोध और अध्ययन की दृष्टि से उपयोगी साबित हो सकती हैं। समय के झंझावातों से जूझकर भी इन्होने अपना शिल्प सौन्दर्य जिस प्रकार बनाये रखा वह आज भी अनुपमेय है।
-जैकी स्टूडियो 11-मंगलपुरा स्ट्रीट, झालावाड़-326001 (राज.)