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अनेकान्त 58/3-4
जिनकी लागत उस जमाने में भी कम से कम पचास लाख रुपयों से कम न रही होगी । चामुण्डराय द्वारा निर्मित दो-तीन मंदिरों का ही पता चलता है परन्तु गंगराज और उनके वंशजों द्वारा निर्मित मंदिरों की संख्या सौ से कम नहीं।
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इस परकोटे की दीवारें मानो लोहे की बनी हैं। लगभग 1000 वर्ष से अधिक इन्हें बने हो गये, पर क्या मजाल है कि जरा भी कहीं से मोच खा जायें? पत्थर की 2-2 फुट चौड़ी शिलाओं को काटकर उन्हें एक के ऊपर एक रखकर ये दीवारें खड़ी की गई हैं। इस परकोटे की बाहरी मुडगारियों पर यक्ष-यक्षियों से आवेष्टित बिम्ब हैं । सामने की सिद्धर बसदि की मुडगारी पर अष्ट दिग्पालों से आवेष्टित जिनबिम्ब हैं । इन्हीं दिग्पालों में 'मदन' नामक एक यक्ष है । यही रचना उदयपुर संस्थान-स्थित केशरियानाथजी के मंदिर पर भी दिखाई देती है ।
बाहुबली भगवान् की मूर्ति इतनी सुन्दर और सजीव है कि जो कोई इसे देखता है वहीं इस पर फिदा हो जाता है ।
इस मूर्ति की सुन्दरता के विषय में इतना ही कहा जा सकता है, जिस किसी भी स्थापत्य कला - विज्ञ ने इसे देखा है वह इसकी कला से मोहित हुए बिना नहीं रहा । भारत सरकार के तत्कालीन पुरातत्व तथा स्थापत्य विभागों के डायरेक्टर जनरल डॉ. फर्ग्युसन ने इस मूर्ति के विषय में लिखा है:
"Nothing grandur or more imposing exists out of Egypt and there no known statue surpasses it in height, though it must be confessed they do excel in perfection of the Art they exhibit.”
यह मूर्ति गोम्मटेश्वर भगवान् की है। दक्षिण भारत में ये इसी नाम से प्रसिद्ध है परंतु दिल्ली, आगरा, फिरोज़ाबाद, मेरठ आदि उत्तरी भारत के किसी जैनी से पूछो कि आप इन्हें किस नाम से जानते और पूजते हैं तो वे इनका नाम 'बाहुबली' ही बतायेंगे। अधिक सच बात तो यह है कि