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अनेकान्त 58/3-4
___“पत्तों की आड में छिपे हुए सुगन्धि पुष्प की भाँति गंगराज ने होयसल राज्य का निर्माण करके निष्काम कर्मी कहलाकर वे परम पद को प्राप्त हुए।” इन्हीं महान् गगराज ने गोम्मटश्वर का परकोटा वनवाया, गंगवाडि परगने के समस्त जिन मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया, तथा अनेक स्थानो पर नवीन जिनमन्दिर निर्माण कराये। प्राचीन कुन्दकुन्दान्वय के वे उद्धारक थे। इन्ही कारणो से वे चामुण्डराय से भी सौगुणे अधिक धन्य कहे गये हैं।
राजा विष्णुवर्धन के उत्तराधिकारी नरसिंह प्रथम (ई) 1141 से 1172) अपनी दिग्विजय के अवसर पर श्रवणबेलगोल आए और गोम्मट देव की विशेष रूप से अर्चा की। उन्होंने अपने विशेष सहायक पराक्रमी सेनापति एवं मन्त्री हुल्ल द्वारा वेलगोल में निर्मित चतुर्विशति जिन मन्दिर का नाम 'भव्यचूड़ामणि' कर दिया और मन्दिर के पूजन, दान तथा जीर्णोद्धार के लिए ‘सवणेरु' ग्राम का दान कर भगवान् गोम्मटेश के चरणो में अपने राज्य की भक्ति को अभिव्यक्त किया। मन्त्री हुल्ल ने नरेश नरसिंह प्रथम की अनुमति से गोम्मटपुर के तथा व्यापारी वस्तुओं पर लगने वाले कुछ कर (टेक्स) का दान मन्दिर को कर दिया। होयसल राज्य के विघटन पर दक्षिण भारत में विजयनगर सर्वधर्म सद्भाव की परम्परा मे अटूट आस्था रखते थे। उनके राज्यकाल मे एक बार जैन एवं वैष्णव समाज में गम्भीर मतभेद हो गया। जैनियों में से आनेयगोण्डि आदि नाइओं ने राजा बुक्काराय से न्याय के लिए प्रार्थना की। राजा ने जैनियों का हाथ वैष्णवों के हाथ पर रखकर कहा कि धार्मिकता में जैनियों और वैष्णवों में कोई भेद नहीं है। जैनियों को पूर्ववत् ही पच्चमहावाद्य और कलश का अधिकार है। जैन दर्शन की हानि व वृद्धि को वैष्णवों को अपनी ही हानि व वृद्धि समझना चाहिए। न्यायप्रिय राजा ने श्रवणबेलगोल के मन्दिरों की समुचित प्रवन्ध व्यवस्था और राज्य में निवास करने वाले विभिन्न धर्मों के अनुयायियों में सद्भावना की कड़ी को जोड़कर भगवान् गोम्मटेश के चरणों में श्रद्धा के सुमन अर्पित किए थे। वास्तव में भगवान् गोम्मटेश