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________________ अनेकान्त 58/3-4 उठाये हुए शिला-खण्ड भगवान बाहुबली के पदाघात से भूमि में धंस जाते थे। नन्दियों के बदन से सोने की-सी छवि छिटकती थी। उनके गले मे बंधे हुए, पीठ कर लटकते हुए नाना प्रकार के छोटे-बड़े घंटे, कमर पर, बगल में, पैरों में लगे हुए घुघरू मधुर निनाद कर रहे थे, जिनकी प्रतिध्वनि कानन में सर्वत्र गूंज रही थी। xxx वे नन्दी ! दीदी, सुनहले रंग के नन्दी । मेरु पर्वत की भाँति उन्नत, पुष्ट, उत्तम आभरणों से सजे हुए नन्दियों को परम सौम्य एवं सुन्दर भगवान बाहुबली को चलाते हुए आना ऐसा भव्य दृश्य था जिसकी महत्ता का परिचय उसे स्वयं देखने पर ही हो सकता है। शब्दों से उसका वर्णन करना सचमुच असभव ही है। लोग परस्पर कहने लगे-'इससे बढ़कर पुण्य का दृश्य और कहाँ देखने को मिलेगा। इसे देखकर हमारी आँखें धन्य हुई। मरते दम तक मन में इस दृश्य का रखकर जी सकते हैं।' xxx बाहुबली स्वामी नन्दियों को देवालय के महाद्वार तक चलाते आये। तब अप्पाजी, तुम, छोटी दीदी, मैं तथा उपस्थित सब लोगों ने आनन्द तथा भक्ति से हाथ जोडकर वाहुवली तथा नन्दियों के चरणों पर सिर रखकर प्रणाम किया। महाद्वार के ऊपर में लोगों ने पुष्पों से महावलि स्वामी का मस्तकाभिषेक किया।” (पृ. 232, 233, 2-10) प्रस्तुत अश के विश्लेपण से ज्ञात होता है कि भगवान् बाहुबली जन एवं जैनेतर धर्मों के परमाराध्य पुरुप के रूप में शताब्दियो से वन्दनीय रहे. है। शव मन्दिर के निर्माण की परिकल्पना में भगवान बाहुबली का भक्ति एव श्रद्धा से स्मरण और उनका मुगन्धित पुण्यो से बालय के महाद्वार पर पुष्पाभिषेक वह सिद्ध करता है कि भगवान् बाहुबली जैन समाज के ही नहीं अपितु सम्पूर्ण कर्नाटक गज्य की अर्चा के प्रमुख देवपुरुप रहे है। सम्राट् विष्णुवर्धन के प्रतापी सनापति ने विपग परिस्थितियों में भी होयसल राज्य की कीर्ति-पताको के लिए कठोर 21 किया था। शातला के लखक श्री के. वी. अय्यर के अनुसार
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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