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अनेकान्त 58/3-4
दिव्य तपोमूर्ति गोम्मटेश स्वामी की सतत साधना जन-जन की आस्था का केन्द्र रही है। भगवान् बाहुबली के तपोरत रूप से अभिभूत कन्नड कवि गोविन्द पे भाव-विहल अवस्था में प्रश्न कर बैठते हैं-'तुम धूप मे मुरझाते नहीं, ठण्ड में ठिठुरते नहीं, वर्षा से टपकते नहीं, तुम्हारे विवाह में दिशारूपी सुहागिनों ने तुम्हारे ऊपर नक्षत्र-अक्षत बरसाए, चन्द्र और सूर्य का सेहरा तुम्हारे सिर पर रखा, मेघ-दुन्दुभि के साथ बिजली से तुम्हारी आरती उतारी, नित्यता-वधू आतुरता से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है! आँखें खोलकर देखते क्यों नहीं? हे गोम्मटेश्वर!' (र.श्री. मुगलि, कन्नड़ साहित्य का इतिहास, पृ. 229)
चक्रवर्ती सम्राट् भरत ने तपोमूर्ति बाहुबली स्वामी द्वारा एक वर्ष की अवधि के लिए धारण किए गए प्रतिमायोग व्रत की समापन वेला के अवसर पर महामुनि बाहबली के यशस्वी चरणों की पूजा की। पूजा के समय श्री गोम्मटस्वामी को केवलज्ञान हो गया। यह प्रसन्नचित्त सम्राट भरत का कितना बड़ा अहोभाग्य था! उन्हें बाहुबली स्वामी के केवलज्ञान उत्पन्न होने के पहले और पीछे-दोनों ही समय मुनिराज बाहुबली की विशेष पूजा का अवसर प्राप्त हुआ। सम्राट् भरत ने केवलज्ञान उन्पन्न होने से पहले जो पूजा की थी वह अपना अपराध नष्ट करने के लिए की थी और केवलज्ञान होने के बाद जो विशेष पूजा की वह केवलज्ञान की उत्पत्ति के अनुभव के लिए की थी। आचार्य जिनसेन के अनुसार सम्राट भरत द्वारा केवलज्ञानी बाहुबली की भक्तिपूर्वक की गई अर्चना का शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। सम्राट् भरत और बाहुबली के अटूट प्रेम संबंध का विवरण देते हुए उन्होंने लिखा है
स्वजन्मानुगमोऽस्त्येको धर्मरागस्तथाऽपरः। जन्मान्तरानुबन्धश्च प्रेमबन्धोऽतिनिर्भरः।। इत्येकशोऽप्यमी भक्तिप्रकर्षस्य प्रयोजकाः। तेषां नु सर्वसामग्री का न पुष्णाति सक्रियाम् ।।
(आदिपुराण, पर्व 36/160-61)