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अनेकान्त 58/3-4
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करिणो हरिणारातीनन्वीयुः सह यूथपैः। स्तनपानोत्सुका भेजुः करिणीः सिंहपोतकाः।। कलमान् कलमांकारमुखरान् नखरैः खरै। कण्ठीरवः स्पृशन् कण्ठे नाभ्यनन्दि न यूथपैः।
(आदिपुराण, पर्व 36/165.168) अर्थात् उनके चरणों के समीप हाथी, सिह आदि विरोधी जीव भी परस्पर का वैर-भाव छोड़कर इच्छानुसार उठते-बैठते थे और इस प्रकार वे मुनिराज के ऐश्वर्य को सूचित करते थे। हाल की ब्यायी हुई सिंहनी भैंसे के बच्चे का मस्तक सँघकर उसे अपने बच्चे के समान अपना दूध पिला रही थी। हाथी अपने झुण्ड के मुखियों के साथ-साथ सिंहों के पीछे-पीछे जा रह थे और स्तन के पीने में उत्सुक हुए सिंह के बच्चे हथिनियों के समीप पहुंच रहे थे। बालकपन के कारण मधुर-शब्द करते हुए हाथियों के बच्चों को सिंह अपने पैने नाखूनों से उनकी गरदन पर स्पर्श कर रहा था
और ऐसा करते हुए उस सिंह को हाथियों के सरदार बहुत ही अच्छा समझ रहे थे उसका अभिनन्दन कर रहे थे।
भगवान् बाहुबली के लोकोत्तर तप के पुण्य स्वरूप तिर्यच जीवों के हृदय में व्याप्त अज्ञानान्धकार नष्ट हो गया था। जंगल के क्रूर जीव शान्ति सुधा का अमृतपान कर अहिसक हो गए थे। भगवान् गोम्मटेश के चरणो के समीप के छिद्रों में से काले फण वाले नागराजों की लपलपाती हुई जिह्याओं को देखकर प्रातः स्मरणीय आचार्य जिनसेन को भगवान् की पूजा के निमित्त नील कमलो से परिपूरित पूजा की थाली की सहसा स्मृति हो आई
उपाधि मोगिनां मोगैर्विनीलैर्व्यरुचन्मुनिः। विन्यस्तैरर्चनायेव नीलैरुत्पलदामकैः।
(आदिपुराण, पर्व 36/171)