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________________ अनेकान्त 58/3-4 की सर्वोपरि उपलब्धि मानते हुए चक्रवर्ती भरत के मुखारविन्द से कहलवाया है “थुणइ णराहिउ पयपडियल्लउ पई मुएवि जगि को विण भल्लउ। पई कामें अकामु पारद्धउ पई राएं अराउ कउ णिद्धउ। पई बाले अबालगइ जोइय पई अपरेण वि परि मइ ढोइय। पई जेहा जगगुरुणा जेहा एक्कु दोण्णि जइ तिहुयणि तेहा।" (महापुराण, 8/9) अर्थात् आपको छोड़कर जग में दूसरा अच्छा नहीं है, आपने कामदेव होकर भी अकामसाधना आरम्भ की है। स्वयं राजा होकर भी अराग (विराग) से स्नेह किया है, बालक होते हुए भी आपने पण्डितों की गति को देख लिया है। आप और विश्वगुरू ऋषभनाथ जैसे मनुष्य इस दुनियां में एक या दो होते हैं। ___भगवान् बाहुबली की कठोर एवं निस्पृह साधना ने जिनागम के सूर्य आचार्य जिनसेन के मानस पटल को भावान्दोलित कर दिया था। इसीलिए उन्होंने अपने जीवन की सांध्य बेला में तपोरत भगवान् वाहुबली की शताधिक पद्यों द्वारा भक्तिपूर्वक अर्चा की है। 'आदिपुराण' के पर्व 36/104 में योगीराज बाहुबली के तपस्वी परिवेश को देखकर उनके भक्तिपरायण मन में पत्तों के गिर जाने से कृश लतायुक्त वृक्ष का चित्र उपस्थित हो गया। साधना काल में भयंकर नागों और वनलताओं से वेष्टित महामुनि बाहुबली के आत्मवैभव का उन्होंने आदिपुराण पर्व 36/109-113 में इस प्रकार दिग्दर्शन कराया है दधानः स्कन्ध पर्यन्तलम्बिनीः केशवल्लरीः । सोऽन्वगादूढकृष्णाहिमण्डलं हरिचन्दनम् ।। माधवीलतया गाढमुपगूढः प्रफुल्लया। शाखाबाहुभिरावेष्ट्य सधीच्येव सहासया।। विद्याधरी करालून पल्लवा सा किलाशुषत् । पादयोः कामिनीवास्य सामि नम्राऽनुनेष्यती।।
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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