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________________ 68 अनेकान्त 58/3-4 को चंग। अण्णु कवणु पच्चक्खु अणंगउ। अण्णु कवणु जिणपयकयपेसणु। अण्णु कवणु रक्खियणिवसासणु। (महापुराण, सन्धि 18/3) तुम जितने तेजस्वी हो, उतना दिवाकर भी तेजस्वी नहीं है। तुम्हारे समान समुद्र भी गम्भीर नहीं है। तुमने अपयश के कलंक को धो लिया है और नाभिराज के कुल को उज्ज्वल कर लिया है। तुम विश्व में अकेले पुरुषरत्न हो जिसने मेरे बल को भी विकल कर दिया। कौन समर्थ व्यक्ति शान्ति को स्वीकार करता है। विश्व में किसके यश का डंका बजता है। तुम्हें छोड़कर त्रिभुवन में कौन भला है? दूसरा कौन प्रत्यक्ष कामदेव है। दूसरा कौन जिनपदों की सेवा करने वाला है और दूसरा कौन नृपशासन की रक्षा करने वाला है। दीक्षार्थी बहुबली ने सांसारिक सुखो का त्याग करते हुए अपने पुत्र को राज्य भार देकर तपस्या के लिए वन मे प्रवेश किया। उन्होने समस्त भोगी को त्याग कर वस्त्राभूषण उतारकर फेंक दिए और एक वर्ष तक मेरू पर्वत के समान निष्कम्प खड़े रहकर प्रतिमा योग धारण कर लिया। ____दीक्षा रूपी लता से आलिंगित बाहुबली भगवान् निवृत्तिप्रधान साधुओं के लिए शताब्दियों से प्रेरणा-पुंज रहे हैं। महाकवि स्वयंभू ने 'पउमचरिउ' में भगवान् बाहुबली की तपश्चर्या का संक्षिप्त किन्तु प्रभावशाली चित्रांकन इस प्रकार किया है वेड्ढिउ सुछ विसालेहि वेल्ली-जालेहि अहि-विच्छिय-वस्मीयहि। खणु वि ण मुक्कु भडारउ मयण-वियारउ णं संसारहों भीयहिं। (पउमचरिउ, संधि 4/12) अर्थात् पर्वत की तरह अचल और शान्त चित्त होकर खड़े रहे। बड़ी-बड़ी लताओं के जालों, साप-बिच्छुओं और बांवियो से वे अच्छी तरह घिर गये, कामनाशक भट्टारक बाहुबलि एक क्षण भी उनसे मुक्त नहीं हुए। मानो संसार की भीतियों ही ने उन्हें न छोड़ा हो! महाकवि पुष्पदन्त ने भगवान् बाहुबली की अकाम-साधना को विश्व
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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