SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 58/3-4 बसववेट्टि द्वारा प्रतिष्ठापित चौबीस तीर्थकरों के अष्टविध पूजन के लिए मोसले के महाजनों ने मासिक चन्दा देने की प्रतिज्ञा की।36 मासिक के अतिरिक्त वार्षिक चन्दा देने के उल्लेख भी मिलते हैं। चतुर्विशति तीर्थकरों के अष्टविध पूजार्चन के लिए मोसल के कुछ सज्जनों ने वार्षिक च दा देने की प्रतिज्ञा की।7 गोम्मटेश्वर द्वार पर उत्र्कीण एक लेख के अनुसार बेल्गुल के समस्त जौहरियों ने गोम्मटदेव और पार्श्वदेव के पुष्प पूजन के लिए वार्षिक चन्दा देने का संकल्प किया था। __ प्रतिमा के दुग्धाभिषेक के लिए द्रव्य का दान करना अत्यन्त श्रेष्ठ माना जाता था। कोई भी व्यक्ति कुछ सीमित धन का दान करता था। उस धन के ब्याज से जितना दूध प्रतिदिन मिलता था, उससे दुग्धाभिषेक कराया जाता था। आदियण्ण ने गोम्मटदेव के नित्याभिषेक के लिए चार गद्याण का दान किया, जिसके व्याज से प्रतिदिन एक 'बल्ल' दूध मिलता था।१ हुलिगेरे के सोवणा ने पांच गद्याण का दान दिया, जिसके व्याज से प्रतिदिन एक 'बल्ल' दूध मिलता था। इसी प्रकार दुग्धदान के लिए अन्य उदाहरण' भी आलोच्य अभिलेखों में देखे जा सकते हैं। अष्टादिक्पालक मण्डप के स्तम्भ पर खुदे एक लेख के अनुसार पुट्ट देवराजै अरस ने गोम्मट स्वामी की वार्षिक पाद पूजा के लिए एक सौ वरह का दान दिया तथा गोम्मट सेट्टि ने बारह गद्याण का दान दिया।45 इसके अतिरिक्त श्रीमती अव्वे ने चार गद्याण का तथा एरेयङ्ग ने बारह गद्याण का दान दिया। __(iv) वसदि (भवन) निर्माण-आलोच्य अभिलेखों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि उस समय वसदि निर्माण भी दान परम्परा का एक अंग था। ये वसदियों पूर्वजों की स्मृति में जन-साधारण के कल्याणार्थ बनवाई जाती थी। आज भी पार्श्वनाथ, कत्तले, चन्द्रगुप्त, शान्तिनाथ, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ, चामुण्डराय, शासन, मज्जिगण्ण, एरछुकट्टे, सवतिगन्धवारण, तोरिन, शन्तीश्वर, चेन्नण, आदेगल, चौबीस तीर्थकर, भण्डारि, अक्कन सिद्धांत, दानशाले, मगरिय आदि बस्दियों को खंडित अवस्था में देखा जा
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy