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________________ अनेकान्त 58/3-4 तराशी गई, शताब्दियों से मानसून के थपेड़े सहन करती हुई बाहुबली की यह विशाल प्रतिमा अपनी सादगीपूर्ण भव्यता के साथ कायोत्सर्ग मुद्रा में अचल खड़ी है । 19 महान् विद्वान फर्ग्यूसन ने मूर्ति के विषय में निम्न विचार व्यक्त किये हैं : "Nothing more grander or more inposing exists anywhere out of Egypt, and even there no known statue surpasses it in height 19 अर्थात मिश्र से बाहर संसार में कहीं भी इससे अधिक भव्य और अनुपम मूर्ति नहीं है और वहाँ भी कोई भी ज्ञात मूर्ति ऊँचाई में इसके समकक्ष नहीं है । कवि बोप्पण ने लगभग 1180 ई. में मूर्ति के कला सौन्दर्य पर मुग्ध होकर अपने काव्य में लिखा है : अतितंगाकृतिया दोडागदद रोल्सौन्द्यर्यमौन्नत्यमुं नुतसौन्दर्यमुभागे मत्ततिशंयतानाग दौन्नत्युमुं नुतसौन्दर्यमुमूज्जितातिशयमुं तन्नल्लि निन्दिदर्दुवें क्षितिसम्पूज्यमो गोम्टेश्वर जिनश्री रूपमात्मोपमं । । अर्थात् “यदि कोई मूर्ति अति उन्नत (विशाल) हो, तो आवश्यक नहीं वह सुन्दर भी हो । यदि विशालता और सुन्दरता दोनों हों, तो आवश्यक नहीं उसमें अतिशय ( दैविक प्रभाव ) भी हो। लेकिन गोम्मटेश्वर की इस मूर्ति में तीनों का सम्मिश्रण होने से छटा अपूर्व हो गई है।” इसी अभिलेख में लिखा है पक्षी भूलकर भी इस मूर्ति के ऊपर नहीं उड़ते । यह भी इसकी दिव्यता का प्रमाण है । मैसूर के तत्कालीन नरेश कृष्णराज वोडेयर ने कहा था, "जिस प्रकार भरत के साम्राज्य के रूप में भारत विद्यमान है उसी प्रकार मैसूर की भूमि गोम्मटेश्वर बाहुबली के आध्यात्मिक साम्राज्य की प्रतीक रूप है ।"
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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