________________
अनेकान्त-58/1-2
115
इस प्रकार भारतीय इतिहास के प्राचीन युग में महाभारत के उपरान्त उत्तरभारत में लगभग 3री शताब्दी ई. तक तथा कितने ही प्रान्तों में 13वीं 14वीं शताब्दी ईस्वी तक जैनधर्म की ही प्रधानता रही, राज्यवंशों, प्रसिद्ध राजाओं तथा जनसाधारण सभी की दृष्टि से।
इस सांस्कृतिक प्रधानता का परिणाम भी प्रत्यक्ष हुआ। वैदिक संस्कृति तथा उससे उद्भूत पौराणिक धर्मो से याज्ञिक हिंसा सदैव के लिये विदा ले गई। खानपान में सुरा और मांस का यदि नितान्त लोप नहीं हो गया तो वह घृणित और त्याज्य अवश्य समझे जाने लगे। बौद्धों ने जीव हिंसा का तो विरोध किया किन्तु मांस मदिरा के भक्षणपान का समर्थन और प्रचार करने में कोई कसर नहीं की तथापि जैनधर्म के ही प्रभाव से वह वस्तुएँ अभक्ष्य ही हो गई।
जुआ, पशुयुद्ध, स्त्रीपुरुष के बीच धार्मिक बंधन की शिथिलता, तजन्य व्यभिचार एवं विषयाधिक्य आदि आर्यों और बौद्धों के प्रिय व्यसन कुव्यसन कहलाने लगे। अनेकान्त दृष्टि के प्रचार से धार्मिक उदारता सहिष्णुता, मतस्वातन्त्र्य आदि को पुष्टि मिली। जाति और कुल धर्मसाधन में बाधक नहीं रहे। आत्मवाद ने जड़वाद का बहिष्कार कर दिया। और कर्मसिद्धान्त ने दैव के ऊपर भरोसा कर हाथ पर हाथ रख बैठ रहना भुला दिया। देव-पूजा और भक्ति के द्वारा देवताओं को प्रसन्न कर इहलौकिक फल की प्राप्ति के प्रयत्न के स्थान में आत्मसाधना करना सिखाया। जड़वाद का स्थान अध्यात्मवाद ने ले लिया, रूढ़िवाद का युक्तिवाद और विवेक ने। ज्ञान, भक्ति और सदाचार की त्रिवेणी बहा दी। ___ इसके अतिरिक्त संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, तामिल, तेलेगु, कन्नड़, हिन्दी, गुजराती, मराठी आदि विभिन्न भाषाओं में विविध विषयक विपुल सुन्दर एवं उच्च कोटि का साहित्य जैनविद्वानों द्वारा जैन राजाओं और श्रेष्टियों के प्रोत्साहन से जितना और जैसा इस जैनयुग में रचा गया अन्य किसी दूसरे युग में किसी दूसरी संस्कृति द्वारा नहीं। तत्वज्ञान, दर्शन, आचारशास्त्र, इतिहास, नीति, समाजशास्त्र, वैद्यक, ज्योतिष, गणित, मन्त्रशास्त्र, न्यायशास्त्र, कथा-साहित्य,