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अनेकान्त-58/1-2
सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्ररूप रत्नत्रय की प्राप्ति ही अक्षय सुख के स्थान मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग प्रतिपादन किया। वस्तुस्वरूप के यथार्थ परिज्ञान के हित अनेकान्तात्मक स्याद्वाद, आत्मस्वातन्त्र्य के हित साम्यवाद, पुरुषार्थ का महत्व हृदयगत कराने के हित कर्मवाद तथा स्वपर कल्याण के लिये परमावश्यक अहिंसावाद का सदुपदेश दिया। उनके उपदेश का प्रभाव सर्वव्यापक हुआ, आवालवृद्ध, स्त्री-पुरुष, ऊंच-नीच, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, आर्य, अनार्य, सब ही उनके अनुयायी थे। उनके प्रधान शिष्य ब्राह्मण इन्द्रभूति गौतम आदि गणधरों ने उनके उपदेशित सिद्धान्तों को द्वादशागश्रुत के रूप में रचनाबद्ध किया और तदुपरान्त विशाल जैनसंघों द्वारा सहस्राब्दियों पर्यन्त इस देश के कोने-कोने में ही नहीं दूसरे प्रदेशों में भी भगवान महावीर के कल्याणमयी अहिंसाधर्म का स्रोत वहता रहा है। __ भगवान महावीर से पूर्व की राजनैतिक परिस्थिति में राज्यों के आठ पड़ौसी जोड़े अर्थात् बौद्ध अंगुत्तरनिकाय एवं महावंश के सोलह महाजन पदों का जिक्र किया जाता है। अग, मगध, काशी, कोशल, वज्जि, मल्ल, चेदि, वत्स, कुरु, पाञ्चाल, मत्स्य शूरसेन, अश्मक, अवन्ति, गान्धार कम्बोज-बौद्ध अनुश्रुति के तत्कालीन सोलह महाजनपद हैं। हिन्दु अनुश्रुति (ऐतिहासिक पुराणों) मे भी उस समय के बारह प्रसिद्ध राजाओं का वर्णन किया है । हिन्दु अनुश्रुति के प्रायः सब ही राज्य भारतीय संयुक्तप्रान्त, विहार तथा मध्यप्रान्त के अन्तर्गत
आ जाते हैं। दूसरे, वे किसी एक ही काल के सूचक नहीं वरन् महाभारत के जरासन्ध से लगाकर महावीर काल के पश्चात् तक के राज्य उसमें उल्लिखित हैं। ये सर्व ही राज्य केवल वैदिक आर्यों से संबंधित हैं, अवैदिक, व्रात्य, नाग, यक्ष, अनार्य राज्यों और प्रदेशों का साथ में कोई उल्लेख नहीं। इससे विदित होता है मानों पूरे दक्षिण भारत में उस समय कोई भी राज्य नहीं था। लगभग यही दशा बौद्ध अनुश्रुति की है। प्रथम तो बौद्ध अनुश्रुति ई. सन् की 6ठी 7वीं शताब्दी में सिंहल, बर्मा, तिब्बत, चीन आदि भारतेतर प्रदेशों में विदेशियों द्वारा संकलित हुई। दूसरे, उसमें उल्लिखित महाजनपद भी पश्चिमोत्तर प्रान्त के गांधार, कम्बोज व मध्य भारत के अश्मक, अवन्ति एवं चेदि को छोड़ सर्व ही वर्तमान संयुक्तप्रन्त तथा विहार के अन्तर्गत हैं।