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अनेकान्त-58/1-2
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विद्वान् इसके आदि के 800 व अन्त के 400 वर्षो को प्रधानतया हिन्दु तथा बीच के लगभग चौदह सौ वर्षो को प्रधानतया बौद्धरूपी देखते हैं । कुछ एक तो सारे प्राचीन युग को मुख्यतया बौद्धदृष्टि से ही निरूपण करते हैं।
यहाॅ प्रश्न होता है कि सभ्यता एवं संस्कृति केवल अथवा अधिकांश में बौद्धमयी ही थी? क्या उस युग में जैन संस्कृति कोई सत्ता ही न थी, उसका कोई प्रभाव क्या कभी भी नहीं रहा? क्या भारतीय इतिहास में कभी कोई 'जैनयुग' नहीं हुआ ? क्या वास्तव में प्राचीन भारतीय इतिहास के उक्त बहुभाग को 'बौद्धयुग' का नाम देना संगत तथा ऐतिहासिक सत्य है ?
इन प्रश्नों का उत्तर खोजने से पूर्व एक और प्रश्न उपस्थित होता है कि ऐतिहासिक युगविभागों को मात्र प्राचीन, मध्य, अर्वाचीन युग ही न कहकर हिन्दु, बौद्ध, मुसलमान, आंग्ल आदि संस्कृति अथवा धर्मसूचक नाम क्यों दिये जाते हैं?
वास्तव में जिस युग में जिस संस्कृति की सर्वाधिक महत्ता प्रभाव एवं व्यापकता रही हो, प्रसिद्ध प्रसिद्ध व्यक्तियों एवं प्रमुख राज्यवंशों से जिसे प्रोत्साहन, सहायता एवं आश्रय मिला हो, जनसाधारण के जीवन में जो सर्वाधिक ओतप्रोत रही हो, जातीय साहित्य, कलाओं, राजनीति, समाज-व्यवस्था, जनता के रहन-सहन, खान-पान, आचार-विचार, रीति-रिवाजों पर जिस संस्कृति ने विवक्षित युग में सर्वाधिक प्रभाव डाला हो उसी संस्कृति का निर्देशपरक नाम उक्त ऐतिहासिक युग को दे दिया जाता है और वैसा करना युक्तियुक्त भी है ।
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दूसरी बात यह है कि भारतवर्ष सदैव से एक धर्मप्राण देश रहा है जितनी संस्कृतियां यहाॅ जनमीं और पनपीं उनमें से प्रत्येक का किसी न किसी धर्मविशेष के साथ सम्बन्ध रहा है। धर्म और संस्कृति का संबंध यहां अविनाभावी था, इसी कारण भिन्न भिन्न धर्मो के नामों से ही भिन्न भिन्न संस्कृतियां प्रसिद्ध हुई, यथा व्रात्य, श्रमण अथवा जैन, बौद्ध, हिन्दु-वैदिक अथवा पौराणिक, मुस्लिम इत्यादि ।