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________________ अनेकान्त-57/1-2 श्री महावीर जी वाली प्रति, जो अत्यन्त प्राचीन जान पड़ती है किन्तु इस पर लेखन समयादि का अंकन नही है। पं. जी की संभावना है कि इस प्रति के अन्त का एक पत्र गुम हो गया है, अन्यथा उसमें लिपि संवत् वगैरह का उल्लेख मिल जाता। इस प्रति का सांकेतिक नाम 'ज' दिया गया है। (4) यह प्रति पं. धन्नालाल ऋषभचन्द्र रामचन्द्र बम्बई की है। यह प्रायः शुद्ध है तथा इसका सर्वाधिक उपयोग किया गया है। इस प्रति का सांकेतिक नाम 'ब' रखा गया है। (5) पंचम प्रति श्री पं. परमानन्द शास्त्री के सौजन्य से प्राप्त श्री दि. जैन सरस्वती भण्डार धर्मपुरा दिल्ली की है, जिस पर लेखन काल पौष कृष्णा पंचमी रविवार वि. सं. 1894 है तथा यह लश्कर में लिखी गई थी। उक्त पाँच हस्तप्रतियों के अतिरिक्त पण्डित जी ने सन्देह बने रहने पर श्री पं. के. भुजबली शास्त्री से मूडवद्री की ताड़पत्रीय प्रति से भी मिलान कराके पद्मपुराण का सम्पादन किया है। परिणाम स्वरूप प्रायः सम्पादन का पाठ शुद्ध-निर्धारित हो गया है। कुछ स्थल अनुपलब्ध बने रहने से पूर्ण नही किये जा सके हैं। यथा प्रथम पर्व के 69वें श्लोक का उत्तरार्द्ध पूरा नही किया जा सका है।' हालाँकि उसके रहने या न रहने से प्रवाह में कोई अन्तर नहीं आता है। (ख) अनुसंधानपूर्ण मूलपाठ – आदरणीय पं. जी ने मूलपाठ के निर्धारण में परम्परा, युक्ति एवं अनुभव का प्रयोग किया है। प्रथम पर्व के 41-42 वें श्लोक का अनुवाद करते समय पं. जी ने 'प्रभवं क्रमतः कीर्ति ततोऽनुत्तरवाग्मिनम्" में अनूत्तरवाग्मिनम् (अनु + उत्तरवाग्मिनम्) पाठ की कल्पना की है तथा उन्होंने इस प्रकार अर्थ किया है-'फिर प्रभव को प्राप्त हुआ, फिर कीर्तिधर आचार्य को प्राप्त हुआ। उनके अनन्तर उत्तरवाग्मी मुनि को प्राप्त हुआ।' परन्तु जब डॉ. ए. एन. उपाध्ये ने पं. जी का ध्यान आकृष्ट किया तथा कीर्तिधर का विशेषण अन्यत्र भी अनुत्तरवाग्मी प्रयुक्त होने की बात बताई तो पण्डित जी ने उसे स्वीकार कर लिया। ‘अनुत्तरवाग्मिनम्' पाठ सभी प्रतियों में समान रूप से उपलब्ध है। अतः अन्य पाठ की संभावना वास्तव में पण्डित जी का
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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