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अनेकान्त-57/1-2
अनादि सन्तति चलती रहती है। अतः संसार का चक्र स्वकर्म के अनुसार ही चलता है।16
जैनाचार्य समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलंक, विद्यानन्दि, प्रभाचन्द्र आदि दार्शनिकों ने ईश्वरवादी तर्को का निम्न प्रकार से खण्डन किया है1. कार्यत्व हेतु युक्तियुक्त नहीं क्योंकि उसके मानने पर ईश्वर भी कार्य हो
जायेगा। फिर ईश्वर का भी कोई निर्माता होना चाहिए। इस तरह
अनवस्था दोष हो जायेगा। 2. जगत् यदि कृत्रिम है तो कूपादि के रचयिता के समान जगत् का रचयिता
ईश्वर भी अल्पज्ञ और असर्वज्ञ सिद्ध होगा। असाधारण कर्ता की प्रतीति होती नहीं। समस्त कारणों का अपरिज्ञान होने पर भी सूत्रधार मकान
बनाता है। ईश्वर भी वैसा ही होगा। 3. एक व्यक्ति समस्त कारकों का अधिष्ठाता हो नहीं सकता। एक कार्य को
अनेक और अनेक को एक करते हैं। 4. पिशाचादि के समान ईश्वर अदृश्य है यह ठीक नहीं। क्योंकि जाति तो
अनेक व्यक्तियों में रहती है पर ईश्वर एक है। सत्ता मात्र से यदि ईश्वर कारण है तो कम्भकार भी कारण हो सकता है। अशरीरी व्यक्ति सक्रिय
और तदवस्थ नहीं हो सकता। 5. ईश्वर की सृष्टि स्वभावतः यदि रुचि से या कर्मवश होती है तो ईश्वर का
स्वातंत्र्य कहां रहेगा? उसकी आवश्यकता भी क्या? वीतरागता उसकी
कहां? और फिर संसार का भी लोप हो जायेगा। 6. स्वयंकृत कर्म का फल उसका विपाक हो जाने पर स्वयं ही मिल जाता है।
उसे ईश्वर रूप प्रेरक चेतन की आवश्यकता नहीं रहती। कर्म जड़ अवश्य है पर चेतन के संयोग से उसमें फलदान की शक्ति स्वतः उत्पन्न हो जाती है। जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल यथासमय मिल जाता है।"
जैनदृष्टि यह है कि समीचीन पुरुषार्थ करने पर प्रत्येक आत्मा परमात्मा बन सकता है। अब तक अनंत आत्मायें परमात्मा बन चुकी हैं, बन भी रही