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अनेकान्त-57/1-2
रूप शरीरादि की रचना करता है। 6. धर्म-अधर्म तो अचेतन है। अतः ईश्वर रूप चेतन से अधिष्ठित होकर वह
कार्य करते हैं। आत्मा वह काम कर नहीं सकता क्योंकि उसमें उदृष्ट तथा परमाणु का ज्ञान नहीं।
आचार्य समंतभद्र ने जो ईश्वर को सुख-दुःख का केवल निमित्त कारण मानते हैं उनके लिए आप्तमीमांसा में लिखा है
कामादिप्रभवश्चित्रः कर्मबंधानुरूपतः।
तच्च कर्म स्वहेतुभ्यो जीवास्ते शुद्धयशुद्धितः ।।99 ।। काम, क्रोध मोहादि का उत्पत्तिरूप जो भाव संसार है, वह अपने-अपने कर्म के अनुसार होता है। वे जीव शुद्धता, अशुद्धता से समन्वित होते हैं। __ इस पर तार्किक पद्धति से विचार करते हुए आचार्य विद्यानन्दि 'अष्टसहस्री' में लिखते हैं कि अज्ञान, मोह, अहंकाररूप यह भाव-संसार है। यह एक स्वभाव वाले ईश्वर की कृति नहीं है, कारण उसके कार्य सुख-दुःखादि में विचित्रता दृष्टिगोचर होती है। जिस वस्तु के कार्य में विचित्रता पायी जाती है, उसका कारण एक स्वभाव विशिष्ट नहीं होता है। जैसे अनेक धान्य अङ्करादिरूप विचित्र कार्य अनेक शालि-बीजादिक से उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार सुख-दुःख विशिष्ट विचित्र कार्य रूप जगत् एक स्वभाव वाले ईश्वरकृत नहीं हो सकता। __ 'प्रत्येक कार्य ईश्वरकृत है, कर्म के निमित्त से नहीं' इस न्याय-वैशेषिक मत का निराकरण करते हुए अकलंकदेव कहते हैं कि संसार में इच्छा, द्वेष, शरीरादि अनेक कार्यों की जो उत्पत्ति देखी जाती है, वह अपने-अपने कर्म के अनुसार होती है, उस उत्पत्ति का कारण ईश्वर नहीं है। कर्मों की उत्पत्ति भी राग, द्वेष आदि अपने कारणों से होती है। जिस प्रकार बीज से अंकुर और अंकुर से बीज उत्पन्न होता है और इस प्रकार बीज और अंकुर की अनादि परम्परा चलती रहती है, उसी प्रकार कर्म से रागादि की उत्पत्ति और रागादि से कर्म की उत्पत्ति होती रहती है। इस प्रकार द्रव्यकर्म और भावकर्म की