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अनेकान्त-57/1-2
श्री एस. के. राजचन्द्र राव
पौरवदिग्विजयम् (एकांकी) श्री यतीन्द्र विमल चौधरी
निष्किंचनयशोधरम्, शक्तिशारदम्, भारतविवेकम्,
महाप्रभुहरिदासम्, भारतलक्ष्मीः श्री मि. वेलणकर
हुतात्मदधीचि, रानी दुर्गावती (दोनों रेडिओ रूपक) उपर्युक्त तालिका से सुस्पष्ट है कि बीसवीं शताब्दी में संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में विपुल काव्य प्रणयन हुआ है। जहाँ आनन्दवर्धनाचार्य अपने समय तक 'द्वित्राः पंचषा एव वा महाकाव्यः' कहकर दो-तीन या पाँच-छ: महाकवियों की बात करते हैं, वहाँ बीसवीं शताब्दी में महाकवियों की संख्या पचास के लगभग होना कम आश्चर्यजनक नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि जहाँ पहले महाकवि राज्याश्रित रहकर उनकी प्रशंसा तो करते थे पर समीक्षकों का सामना करना उनके लिए सरल नहीं था। अतः उच्चकोटि के काव्य ही समीक्षा की अग्निपरीक्षा में सफल हो पाते थे। परन्तु आज समीक्षक कदाचित् अपने दायित्व से पीछे होकर मात्र प्रशंसा को ही अपना कर्तव्य समझने लगे हैं। काव्यो के स्थायित्व एवं उनकी उपदेशपरक चेतना के लिए यह स्वस्थ परम्परा नहीं लगती है। बीसवीं शताब्दी के वाङ्मय के इस सम्मर्द में आचार्य विद्यासागर जी महाराज के शतक काव्यों के अभिज्ञान में उनकी समीक्षा का मेरा यह सावधान प्रयास है।
आचार्य विद्यासागरकृत संस्कृतसाहित्य परमपूज्य दिगम्बराचार्य विद्यासागर जी महाराज भारतवर्ष में सन्तशिरोमणि के रूप में विख्यात एक ऐसे साधु हैं जिनकी कलम प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी भाषाओं में अपने कृतित्व द्वारा साहित्यसपर्या में सतत गतिमान है ही, जिनके मुखमण्डल की आभा तथा प्रवचन शैली बलात् दर्शकों को अपनी ओर आकृष्ट करने में समर्थ है। उनमें समन्तभद्र की भद्रता है तो कुन्दकुन्द का कुन्दन भी। उन्हें इष्टोपदेश प्रिय है तो गुणोदय में उनकी रुचि है। रयणमज्जूषा एवं द्रव्यसंग्रह की ओर दृष्टि रखते हुए भी वे निजामृतपान में लीन रहते हैं। आचार्यश्री की मातृभाषा कन्नड़ है, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, अंग्रेजी, मराठी, हिन्दी आदि भाषाओं के लेखन में आप सिद्धहस्त हैं तो तत्-तत् स्थानीय बोलियों को एक सप्ताह के प्रवास में ही बोलने की अद्भुत सामर्थ्य आप में