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अनेकान्त-57/1-2
भी करण से होती है। विशुद्ध परिणामों से शुद्धात्मा के प्रति उपयोग के सहज स्वभावोन्मुखी (अबुद्धिपूर्वक) भाव से करणलब्धि की प्राप्ति होती है।
करणलब्धि के तीन भेद हैं- अधःप्रवृत्त करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण। यह तीनों उक्तनाम क्रमपूर्वक वृद्धिंगत विशुद्धि सहित होते हैं और कर्म निर्जरा के साधन भूत हैं। उनसे दर्शन मोह एवं चारित्र मोह की अंनतानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ कर्म प्रकृतियों का उपशम, क्षयोपशम, क्षय होकर सम्यक्त्व होता है। अनिवृत्तिकरण के अन्त समय में दर्शन मोह के अभाव या अनुदाय से सम्यक्त्व होता है। विशुद्ध उपयोग में अबुद्धिपूर्वक सूक्ष्म करण भावों की प्रगटता सहज ही होती हैं। करणलब्धि द्रव्यानुयोग पूर्वक करणानुयोग के अनुसार त्रि-करण रूप होती है। इसके होने पर मिथ्यात्व सूर्य अस्त हो जाता है और ज्ञान स्वरूपी आत्मक्षितिज पर ज्ञान चेतना का सूर्य उदित होता है। ___ त्रिकालवर्ती सर्वकरणलब्धि वाले जीवों के परिणामों की अपेक्षा तीन करण के नाम हैं। इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है(अ) अधःप्रवृत्तकरण- अधःप्रवृत्तकरण माड़कर जिसे अधिक समय हुआ है, ऐसे ऊपर के समयवर्ती किसी जीव के परिणाम और जिसे कम समय हुआ है, ऐसे निचले समयवर्ती जीवों के परिणामों की संख्या और विशद्धि की समानता भी होती है। जहाँ पहले और पिछले समयों के परिणाम समान हों, सो अधःप्रवृत्तिकरण है। इस करण में नियम से चार बातें अवश्य होती हैं1. विशुद्धि समय-समय प्रति अनंतगुणा बढ़ती है। 2. एक-एक अंतर्मुहूर्त से नवीन बन्ध की स्थिति घटती जाती है, सो स्थिति
बंधापसरण है। 3. प्रशस्त प्रकृतियों में प्रति समय अनंतगुणा बढ़ता हुआ चतुः स्थानगत ____ अनुभाग बंध होता है। 4. अप्रशस्त प्रकृतियों में प्रति समय अनंतगुणा घटता हुआ द्विस्थानगत
अनुभागबंध होता है। अधःप्रवृत्तकरण में स्थिति कांडकघात, अनुभाग