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अनेकान्त-57/3-4
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वस्तु में अर्थक्रिया न होने से उसे सत् भी नहीं कहा जा सकता है। इस प्रकार बौद्धमत में क्षणस्थायी सत्ता को ही यथार्थ माना गया है।'
वेदान्त दर्शन के अनुसार जो सत् है, वह कभी परिवर्तित नहीं हो सकता, इसलिए ब्रह्म ही एक परम सत् है, जगत केवल आभास मात्र है। अज्ञान के कारण जगत में अनेकत्त्व दृष्टिगोचर होता है। यथार्थ में ब्रह्म ही एक मात्र वास्तविक सत्ता है।' सांख्य दर्शन ने नित्य और अनित्य दोनों सत्ताओं को पुरुप
और प्रकृति के रूप में स्वीकार किया है। पुरुष नित्य, स्थिर और चेतन तत्त्व का द्योतक है और प्रकृति अनित्य, अस्थिर और अचेतन तत्त्व का द्योतक है। 6 न्याय वैशेषिक दर्शन में भी सत्ता के द्वैत को स्वीकार किया गया है। विश्व का निर्माण विभिन्न प्रकार के परमाणुओं और जीवात्माओं के सहयोग से हुआ
मीमांसा दर्शन भी न्याय वैशेषिक की भांति बहुवादी है और भौतिक सत्ता के मूल में अनेक तत्त्वों को स्वीकार करता है, परन्तु मीमांसा दर्शन में स्थिरता के स्थान पर परिवर्तनशीलता के सिद्धान्त को माना है। नित्य होते हुए भी द्रव्य के रूप आगमापायी होते है। इस प्रकार कुमारिल भट्ट ने पदार्थो के उत्पादव्यय और स्थिति रूप को स्वीकार किया है। __ जैन दर्शन के अनुसार सत् को उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य युक्त माना गया है। आचार्य उमास्वामी जी ने लिखा है कि “उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं-सत्।" अर्थात् उत्पाद व्यय और ध्रौव्य से सहित सत् का लक्षण है। यही लक्षण जैन दर्शन में सत् का लक्षण अन्य दर्शनों से पृथक करता है। जैन मान्य वस्तु या द्रव्य न तो वेदान्त की भांति पूर्ण कूटस्थ है और न ही सांख्य दर्शन की भांति सत्ता का चेतन भाग कूटस्थ-नित्य और अनित्य भाग परिणामि-नित्य है। इसी प्रकार जैनमान्य वस्तु वौद्ध दर्शन की भांति मात्र उत्पाद-व्यय, युक्त भी नहीं है। न्याय वैशेषिक की भांति जैनमत में चेतन व जड़ तत्त्वों में निष्क्रियता भी नहीं है। जैन मान्यता अनुसार चेतन और जड़, मूर्त और अमूर्त, सूक्ष्म और स्थूल सभी सत् पदार्थ उत्पाद व्यय और ध्रौव्य रूप से त्रिरुप है।" प्रत्येक सत्तात्मक वस्तु में दो अंश विद्यमान होते हैं। वस्तु का एक अंश तीनों कालों