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अनेकान्त-57/3-4
सत्यांश बोध के समान ही विराट सत्य का सूक्ष्म सत्य का बोध भी इन्द्रियज्ञान, बुद्धि और शास्त्राध्ययन के द्वारा हासिल करने की कोशिश करता है। इस प्रयत्न में असफल रहने के कारण वह धारण करता है कि सत्य-सर्वथा अज्ञेय
पूर्णसत्य केवलज्ञान का विषय है- परन्तु वास्तव में सत्य सर्वथा अज्ञेय नहीं है। सत्य अनेक धर्मो की अनेक सत्यांशों की, अनेक तत्त्वों की व्यवस्थात्मक सत्ता है। उनमें से कुछ सत्यांश जो लौकिक जीवन के लिये व्यवहाय हैं और जिन्हें जानने के लिये प्राणधारियों ने अपने को समर्थ बनाया है, इन्द्रियज्ञान के विषय हैं, निरीक्षण और प्रयोगों (Experiments) द्वारा साध्य हैं। कुछ बुद्धि और तर्क से अनुभव्य है, कुछ श्रुति के आश्रित हैं, कुछ शब्द-द्वारा कथनीय हैं और लिपि-बद्ध होने योग्य हैं। परन्तु पूर्णसत्य इन इन्द्रिय-ग्राह्य, बुद्धिगम्य और शब्दगोचर अत्यांशों से बहुत ज्यादा है। वह इतना गहन और गम्भीर है-बहुलता, बहुरूपता और प्रतिद्वन्द्वों से ऐसा भरपूर है कि उसे हम अल्पज्ञजन अपने व्यवहृत साधनों-द्वारा-इन्द्रिय निरीक्षण, प्रयोग, तर्क, शब्द आदि द्वारा-जान ही नहीं सकते; इसीलिये वैज्ञानिकों के समस्त परिश्रम जो इन्होंने सत्य-रहस्य का उद्घाटन करने के लिये आज तक किये हैं, निष्फल रहे हैं। सत्य आज भी अमेद्य व्यूह के समान अपराजित खड़ा हुआ है।
वास्तव में बात यह है कि इन्द्रिय, बुद्धि और वचन आदि व्यवहृत साधनों की सृष्टि पूर्णसत्य को जानने के लिये नहीं हुई। उनकी सृष्टि तो केवल लौकिक जीवन के व्यवहार के लिये हुई है। इस व्यवहार के सत्य-सम्बन्धी जिन जिन तत्त्वों का जितनी जितनी मात्रा में जानना और प्रकट करना आवश्यक
और उपयोगी है उसके लिये हमारे व्यवहृत साधन ठीक पर्याप्त हैं। परन्तु पूर्णसत्य इन सत्यांशों से बहुत बड़ा है, उसके लिये उपर्युक्त साधन पर्याप्त नहीं हैं। "वह इन्द्रिय बोध, तर्क और बुद्धि से परे है- वह शब्द के अगोचर है-वह हम अल्पज्ञों-द्वारा नहीं जाना जा सकता। इस अपेक्षा हम सब ही अज्ञानी और सन्दिग्ध हैं 281 पूर्णसत्य उस आवरणरहित, निविकल्प, साक्षात-अन्तरंग ज्ञान का विषय है, जो दीर्घतपश्चरण और समाधि-द्वारा कर्मक्लेशों से मुक्त होने पर