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________________ पं. नाथूराम प्रेमी के साहित्य में दलितोत्थान के स्वर -डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन दलित शब्द से सामान्यतया उस व्यक्ति, वर्ग या जाति का बोध होता है, जो सदियों पद-दलित, शोषित, अत्याचार का शिकार, पीड़ित, दबी कुचली, असहाय, दरिद्र और निर्धन तथा विपन्न रही हो। पं. नाथूराम प्रेमी ने इसके विषय में भी सोचा, समझा और अन्वेषण किया है। उनकी प्रसिद्ध पुस्तक 'जैन साहित्य और इतिहास' में परिग्रह परिमाण व्रत में दासी-दास नामक एक लेख है। यह लेख महत्त्वपूर्ण है। इसमें वे कहते हैं कि प्राचीनकाल में सारे ही देशों में दास-प्रथा या गुलाम रखने का चलन था और वह भारतवर्ष मे भी था। इस देश के अन्य प्राचीन ग्रन्थों के समान जैन ग्रन्थों में भी इसके अनेक प्रमाण मिलते हैं। जैनधर्म के अनुसार बाह्य परिग्रह के दस भेद हैं बहिरसंगा खेत्तं वत्थं धनधण्णकुप्यभंडानि। दुपय चउप्पय जाणाणि चेव सयणासहे य तहा।। -भगवती आराधना 112 विजयोदया टीका में इसका अर्थ किया है "बहिरसंगा बाह्यपरिग्रहाः। खेत्तं कर्षणाधिकरणं। वत्थं वास्तुगृहं। धणं सुवार्णादिः। धान्यं बीहयादिः। कुप्य। कुप्यं वस्त्रं। भंड-भाणशब्देन हिंगुभरिचादिकमुच्यते। द्विपदशब्देन दासदासीमृत्यवर्गादिः । चउप्पय गजनुरगादयः चतुष्पदाः । जाणदि शिविकावियानादिकं यानं। सयणासणे शयन्ननि आसनानिच।" खेत, वास्तु (मकान), धन (सोना, चाँदी), धान्य (चावक, गेहूँ आदि) कुप्य (कपड़े), भाण्ड (हिंग मिर्चादि मसाले), द्विपद (दो-पाये दास-दासी, चतुष्पद चौपाये हाथी, घोड़े आदि), यान (पालकी, विमान आदि) शयन (बिछौने) और आसन ये बाह्य परिग्रह हैं। लगभग यही अर्थ आशाधर और अमितगति ने भी अपनी टीकाओं में
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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