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अनेकान्त-57/3-4
शुद्धात्मा के आश्रय से कर्मागमन निरोध को संवर कहते हैं। आगम की दृष्टि से गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय, चारित्र और तप से कर्मो का संवर और निर्जरा होती है। अध्यात्म दृष्टि से आत्म स्वभाव एवं क्रोधादि मनोभावों के मध्य आधार-आधेय सम्बन्ध न होने के कारण दोनों अलग-अलग हैं, यह भेद-विज्ञान होते ही शुद्धात्म तत्व की उपलब्धि-अनुभूति होती है और उससे कर्मो का संवर होता है। संवर तत्व धर्माचरण की प्रथम सीढ़ी है। यहीं से जीवन का धर्मरूप रूपांतरण होता है। संवर होने का दार्शनिक सूत्र है-जो अपनी आत्मा को शुद्ध देखता है वह शुद्धात्मा को पाता है और जो अशुद्ध देखता है, वह अशुद्धात्मा को पाता है (स. सार गा. 186)
शुद्धात्मा के आश्रय से कर्मों का एकदेश क्षय होना निर्जरा तत्व है। कर्मों की निर्जरा सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जीव की ज्ञान-वैराग्य शक्ति से होती है जिसमें ज्ञानी वैराग्य और ज्ञानपूर्वक कर्मोदय जन्य भोग करता हुआ भी कर्मो से अवद्य रूप रहता है। जिस प्रकार वैध पुरूष जहर को भोगता हुआ भी नहीं मरता और अरतिभाव से मद्यपान करता हुआ भी जीव उन्मुक्त नहीं होता उसी प्रकार ज्ञान-वैराग्य पूर्वक ज्ञानी विषयों का सेवन करता हुआ भी कर्मो से नहीं बंधता (स. सार 195-196)। वह तो अपने को 'एक ज्ञायक भाव हूँ' ऐसा मानता है और कर्मोदय एवं राग को कर्म का विपाक मानकर छोड़ता है (गा. 198-199)। ___ वर्तमान में आत्मा विभाव रूप अपद में स्थित है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि ज्ञान गुण के बिना अन्य किसी क्रियाकांड से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती, अतः नियत ज्ञान को ग्रहण कर (गा. 205)। तू उस ज्ञान में नित्यरति-प्रतिवाला हो, उसमें नित्य संतुष्ट हो और उससे तृप्त हो तभी तुझे उत्तम सुख मिलेगा (गा. 206)। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि ज्ञानी का परिग्रह ज्ञान ही है। ज्ञानी अनिच्छुक होने से अपरिग्रही होता है। उसे धर्मरूप पुण्य, अधर्मरूप पाप, भोजन, पेय आदि अनेक प्रकार के सर्व भावों की इच्छा रूप परिग्रह नहीं होता (स. सार गा. 207-214)। वेध-वेदक भाव के अभाव के कारण उसे भोगाकांक्षा भी नहीं होती और कर्मोदय जन्य पर-के-अपराध के कारण उसे बंध भी नहीं