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________________ अनेकान्त-57/3-4 भेद स्वीकार किया है देवार्चनं गृहे स्वस्य त्रिसंध्यं देववन्दनम्। मुनिपादार्चनं दाने सापि नित्यार्चना मता।। ब्रह्म नेमिदत्त द्वारा रचित धर्मोपदेश पीयूष वर्ष श्रावकाचार में अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत के अन्तर्गत सुपात्र को दान का विधान करते हुए मुनियों को उत्तम सुपात्र कहकर उन्हें दान देने का विधान नवधा भक्ति पूर्वक किया गया है। नवधा भक्ति में प्रतिग्रह, उच्चस्थान, पादप्रक्षालन, पूजन, नमस्कार, मनःशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि एवं भोज्यशुद्धि का कथन किया गया है। पं. दौलतराम ने क्रियाकोष के मंगलाचरण में गुरुवन्दना की है 'आचारिज उपाध्याय कौं विनऊं साधुमहन्त।।' 'तीन काल के मुनिवरा वंदों लोक प्रसिद्ध ।। 32 वन्दना के बत्तीस दोष - आ. अमितगति ने वन्दना के 32 दोष कहे हैं1. अनादर आदर रहित होकर वन्दना करना। 2. स्तब्ध अष्टविध मदों में से किसी मदपूर्वक वन्दना करना। 3. पीडित अंगों को दबाकर वन्दना करना। 4. कुंचित केश मरोड़कर वन्दना करना। 5. दोलादित शरीर को झूलते हुए के समान वन्दना करना। 6. कच्छपरिंगित कछुए के समान संकोच-विस्तार पूर्वक वन्दना करना। 7. अंकुशित अंगूठे को मस्तक पर रखकर वन्दना करना। 8. मत्स्योद्वर्तन - मछली की तरह उछलकर वन्दन करना। 9. द्राविडीविज्ञाटित - वक्ष पर दोनों हाथ करके वन्दना करना। 10. आसादना अवज्ञापूर्वक वन्दना करना। 11. विभीत गुरु आदि के भय से वन्दना करना।
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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