________________
अनेकान्त-57/3-4
भव्यबन्धु साधुजन सज्जनों के द्वारा निरन्तर आराधना किये जाते हैं। 22 साधु के भेद :- श्री चामुण्डरायकृत चारित्रसार में जिनरूप को धारण करने वाले दिगम्बर साधुओं के चार भेद कहे गये हैं-अनगार, यति, मुनि और ऋषि। सामान्य साधुओं को अनगार कहते हैं। उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी पर आरूढ और कर्मो की उपशमना और क्षपणा करने में उद्यत साधु को यति कहते हैं। अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी साधु को मुनि कहा जाता है तथा ऋद्धिप्राप्त साधु ऋषि कहलाते हैं। ऋषि चार प्रकार के होते हैं-राजर्षि, ब्रह्मर्षि, देवर्षि और परमर्षि । विक्रिया और अक्षीण ऋद्धि से युक्त साधु ब्रह्मर्षि कहे जाते हैं। आकाशगगन ऋद्धि वाले साधु देवर्षि और केवलज्ञानी साधु परमर्षि कहलाते हैं। श्री पण्डित मेधावीकृत धर्मसंग्रहश्रावकाचार में अनगार के स्थान पर साधु का प्रयोग किया गया है। शेष वर्णन चारित्रसार के ही समान है। मिथ्यादृष्टि सदोष साधु :- रत्नकरण्डश्रावकाचार में मिथ्यादृष्टि मोही साधु की अपेक्षा निर्मोही सम्यग्दृष्टि मोक्षमार्गी गृहस्थ को अच्छा बताया गया है। 25
लाटीसंहिता में सम्यग्दर्शन से गिरकर मिथ्यादृष्टि बने ग्यारह अंग के पाठी साधुओं का वर्णन करते हुए कहा गया है कि यद्यपि उन्हें शुद्धात्मा का अनुभव नहीं होता है. तथापि उनसे जिनागम का उपदेश सुनकर अनेक जीव सम्यग्दृष्टि
और सम्यग्ज्ञानी बन जाते हैं। 26 ऐसे साधुओं को आचार्य वादीभसिंह ने 'उपजातरुजोऽप्येष धार्मिकाणां भिषक्तमः' अर्थात् स्वयं रोगी होने पर भी अन्य धार्मिकों के लिए श्रेष्ठ चिकित्सक कहा है। गृहस्थ की भावसाधुता का निषेध :- आचार्य शुभचन्द्र का कथन है कि आकाशपुष्प अथवा खरविषाण कदाचित् संभव हो जायें, परन्तु गृहस्थ को किसी भी देशकाल में कभी भी ध्यानसिद्धि (भावसाधुपना) नही हो सकता है। यथा
खपुष्पमथवा श्रृङ्ग खरस्यापि प्रतीयते। न पुनर्देशकालेऽपि ध्यानसिद्धि गृहाश्रमे ।। 28